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मोदी सरकार के दाँव-पेंच से विपक्ष पड़ा निढाल

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Category: जून 2017

संदीप त्रिपाठी :

नरेंद्र मोदी सरकार को सत्ता संभाले तीन वर्ष पूरे हो गये,

यानी कार्यकाल का 60% हिस्सा खत्म। जब इन तीन वर्षों की राजनीतिक मोर्चे पर समीक्षा करनी हो तो पहला प्रश्न तो यही कौंधता है कि क्या सचमुच इसकी निरपेक्ष समीक्षा हो सकती है? आज वातावरण ऐसा बन गया है कि यदि आप मोदी सरकार की चार उपलब्धियाँ गिना भर दें तो आपको अंधभक्त ठहरा दिया जायेगा और यदि चार नाकामियाँ गिना दें तो अंधविरोधी। अंधभक्त या अंधविरोधी ठहराये जाने के इस चलन में खतरा यह है कि वह व्यक्ति भक्त या विरोधी हो या न हो, पर ट्रोल यानी हुल्लड़ जमात से चिढ़ कर वैसा ही बनने लग जाता है।
सबसे बड़ा असर - ट्रोल (हुल्लड़) समूह
इस सरकार के तीन वर्षों का सबसे बड़ा असर यह हुल्लड़बाजी (ट्रोलिंग) ही है। इस हुल्लड़बाजी में पूरे देश की जनता दो स्पष्ट खाँचों में विभाजित हो गयी है। एक वे हैं जो मोदी के कामकाज को महज पसंद ही नहीं कर रहे हैं, बल्कि सरकार के पक्ष में विरोधियों से दो-दो हाथ करने को भी तैयार हैं। अब तक यह स्थिति केवल सत्ताधारी दल के कार्यकर्ताओं की होती थी। लेकिन अब आम जन भी इसमें शामिल हैं। दूसरी तरफ, वे लोग हैं जो मोदी सरकार को पसंद नहीं करते और सरकार के अच्छे कदमों को भी स्वीकार करने में हिचकिचाते हैं। कोई भी सरकार ऐसी नहीं हो सकती, जिसका हर कदम सिर्फ अच्छा या सिर्फ बुरा हो। लेकिन अब स्पष्टतया दो राजनीतिक खाँचों में विभाजित समाज मोदी सरकार के बारे में ऐसी ही सोच रखता है। इस बदलाव को दो तरह से देख सकते हैं। एक तो उपलब्धि के तौर पर, कि मोदी सरकार ने देश की जनता को न सिर्फ राजनीतिक रूप से जाग्रत किया है, बल्कि मुखर भी किया है। दूसरे पक्ष से देखें तो यह नाकामी भी है कि समाज का एक हिस्सा सरकार को सरकार होने का सम्मान तक देने को तैयार नहीं है। यह बड़ी विकट स्थिति है, लेकिन स्थिति ऐसी ही है।
सरकार तय कर रही एजेंडा
मोदी सरकार के तीन वर्ष पूरे होने पर सरकार की दूसरी जो सबसे बड़ी खासियत उभरी है, वह यह कि इस समय एजेंडा यह सरकार ही तय कर रही है। विपक्ष, मीडिया, सोशल मीडिया, सबमें केवल उसी मुद्दे पर चर्चा, बहस या बयान केंद्रित होते रहे हैं, जिन पर सरकार चर्चा चाहती है। कुछ मुद्दे आते हैं जिन पर सरकार घिरती नजर आती है, लेकिन तब तक सरकार की ओर से कोई ऐसा मुद्दा उछाल दिया जाता है कि चर्चा पूरी तरह से नये मुद्दे की ओर रुख कर लेती है।
सरकार के हाथों ही एजेंडा तय होने के पीछे एक प्रमुख कारण यह भी है कि विपक्ष जनता की असली समस्याओं पर बहस करने और उन्हें सुलझाने के लिए सरकार पर दबाव बनाने के बजाय 10 लाख के सूट, नरेंद्र मोदी की डिग्री, उनकी पत्नी, सर्जिकल स्ट्राइक के सबूत माँगने, अलग-अलग राज्यों में हुई घटनाओं (जिनके निराकरण में राज्य सरकार की भूमिका होती है) पर मोदी को घेरने जैसे मसलों पर ही व्यस्त रहा। ये मुद्दे कृत्रिम होने से लंबा नहीं चल पाते हैं और न ही इन मुद्दों पर जनता का आक्रोश कोई रूप ले पाता है।
विपक्ष द्वारा ऐसे मुद्दे उठाने से एक संदेश यह भी जाता है कि विपक्ष के पास सरकार के जनोन्मुखी दायित्वों पर बोलने के लिए कुछ नहीं है। प्रकारांतर से संदेश यह जाता है कि सरकार जनोन्मुखी दायित्वों को भली-भांति पूर्ण कर रही है। यह दीगर बात है कि यह संदेश सही है या गलत, लेकिन यह सत्य है कि ऐसा संदेश जा रहा है। ऐसे में बहस का एजेंडा वही बन रहा है, जो मोदी सरकार चाहती है।
एकपक्षीय राजनीति
मोदी सरकार के तीन वर्ष में तीसरा बड़ा बदलाव यह आया है कि राजनीति एकपक्षीय हो गयी है। इसके लिए मोदी सरकार के साथ-साथ विपक्ष भी जिम्मेदार है। विपक्ष गतिशून्य और दिशाहीन दिख रहा है। तमाम मुद्दों पर विपक्ष के बेबुनियाद विरोध के कारण स्थिति यह हो गयी है कि जिन मुद्दों पर विरोध सही भी है, वहाँ भी जनता विपक्ष पर भरोसा करने को तैयार नहीं है।
इस स्थिति में सरकार को स्वत: यह लाभ मिल रहा है कि उसे जवाब देने की जरूरत नहीं पड़ रही है (संसद के रस्मी विरोध और जवाब को छोड़ कर)। किसी भी लोकतांत्रिक देश के लिए यह एक खतरनाक स्थिति है कि विपक्ष का इकबाल न रह जाये और इससे सरकार जवाबदेही के भार से मुक्त हो जाये। लोकतंत्र में विपक्ष सरकार पर अंकुश लगाने का कार्य करता है, लेकिन इसके लिए विपक्ष को धारणा या कल्पना की भूमि को छोड़ कर जमीनी स्तर पर जनता के बीच काम करना होता है। इस मोर्चे पर विपक्ष की गतिशून्यता और मोदी सरकार के आक्रामक रवैये के कारण राजनीति एकपक्षीय दिख रही है।
हर वक्त चुनावी अंदाज की सरकार
मोदी सरकार की चौथी बड़ी राजनीतिक खासियत यह दिख रही है कि यह सरकार लगातार चुनावी अंदाज में ही दिखती है। दरअसल इसके पीछे मुख्य कारण है वर्ष 2002 के गुजरात दंगों के बाद हुए मोदी विरोध को मोदी के प्रति घृणा में बदलने की विरोधियों की कोशिश। यहाँ तक कि विरोधी नेताओं ने विदेशों में भी जा कर मोदी के खिलाफ विषवमन किया (अमेरिका द्वारा मोदी को वीजा न दिये जाने के लिए विरोधियों का अभियान और कांग्रेस नेता मणिशंकर अय्यर द्वारा मोदी को सत्ताच्युत करने के लिए पाकिस्तान से मदद माँगा जाना)।
ऐसी घटनाओं से मोदी पीडि़त के रूप में सामने आये और उन्हें जनता की सहानुभूति मिली। विपक्ष द्वारा लगातार विषवमन किये जाने से मोदी खेमे को भी लगातार इसकी काट के लिए सक्रिय रहना पड़ा। इसी बात से मोदी सरकार के सतत् चुनावी अंदाज में रहने की नींव पड़ी। मोदी सरकार हर छोटे-बड़े घटना-क्रम को एक आयोजन (इवेंट) में बदल देती है। यह आयोजन जनता में उत्साह का समावेश करता है। इससे विपक्ष की तिलमिलाहट बढ़ती है और विपक्ष ज्यादा बड़ी गलतियाँ करने लगता है। इसका सीधा लाभ मोदी सरकार को मिल रहा है।
पहल, नवाचार की परंपरा
मोदी सरकार की पाँचवी बड़ी राजनीतिक खासियत पहल और नवाचार की परंपरा स्थापित करना है। पत्रकारिता में एक बात सिखायी जाती है कि जो सूचना नयी है, पहली बार उद्घाटित हो रही है, वह खबर है। जन-संप्रेषण की इस नीति को मोदी सरकार ने बहुत अच्छे से आत्मसात किया है। सरकार ने लगातार ऐसे काम किये हैं, जो एक पहल की श्रेणी में आते हैं। इसके अलावा, सरकार ने नवाचारों को बढ़ावा दिया है। ये पहल और नवाचार बिल्कुल नयी प्रकृति के होने से जनता, खास कर युवाओं (देश की आबादी के 54%) में सरकार के प्रति आकर्षण बढ़ा है।
इन पहलकदमियों और नवाचारों का असली फायदा जनता को कब और कैसे मिलेगा, इसकी क्या कीमत अदा करनी पड़ेगी, इससे और किस तरह के बदलाव आयेंगे, इससे संलग्न नुकसानों से बचने के लिए क्या एहतियात बरते जाने चाहिए, यह विवेचन बाद की बात है। लेकिन तात्कालिक तौर पर जनता को इस सोच का नयापन आकर्षित करता है। जो लोग इस नवाचार से सकारात्मक रूप से प्रभावित हो रहे हैं, वे बिना सरकारी मदद के सरकार के जबरदस्त पैरोकार बन रहे हैं। विपक्ष इस मोर्चे को समझने में पूरी तरह विफल है। वह नवाचारों के गुण-दोषों के सम्यक विवेचन के बजाय इन्हें जुमला कह कर सरकार का मजाक उड़ाने का क्षणिक आनंद लेने में यकीन रखता दिख रहा है।
सर्वहारा पक्षधर दक्षिणपंथी सरकार
अब तक किसी भी दल के सत्ता में आने पर लोगों, खास कर विश्लेषकों के लिए यह अनुमान लगाना बहुत आसान था कि सरकार की नीतियाँ और कार्यक्रम किस दिशा में होंगे। लेकिन दक्षिणपंथी मानी जाने वाली भाजपा की मोदी सरकार ने इन पूर्वानुमानों के आधार को गड़बड़ा दिया है। भाजपा को आम तौर पर व्यापारी वर्ग का दल कहा जाता रहा है। इसी आधार पर मोदी सरकार को उद्योग समर्थक सरकार माना गया। लेकिन तीन साल बाद संकेतकों के आधार पर यह कहना मुश्किल है कि सरकार उद्योगपतियों की समर्थक है। हाँ, सरकार उद्योग समर्थक अवश्य है, लेकिन उद्योगपतियों की समर्थक या विरोधी की श्रेणी में इस सरकार को रखना मुश्किल है। इसके बजाय इस सरकार की नीतियाँ समाज के सबसे निचले पायदान पर खड़े वर्ग के पक्ष में दिख रही हैं। बहुत से लोग इस पंक्ति से घोर असहमति रखेंगे, लेकिन यह असहमति पूर्वाग्रही होगी।
उज्ज्वला रसोई गैस योजना, प्रधानमंत्री आवास योजना, दीनदयाल ग्राम ज्योति योजना, शौचालय योजना जैसे तमाम कार्य किस वर्ग के पक्ष में हैं? नोटबंदी, सर्जिकल स्ट्राइक, लालबत्ती प्रथा की बंदी, दफ्तरों में सरकारी बाबुओं की समय पर उपस्थिति जैसे कदमों ने किस वर्ग की भावनाओं को सबसे ज्यादा तुष्ट किया है? सबसे निचले पायदान पर खड़ी जनता के हित में योजनाओं को जमीनी स्तर पर उतारने का परिणाम यह हुआ है कि तथाकथित बौद्धिक वर्ग या सरकार की नीतियों से नकारात्मक रूप से प्रभावित वर्ग मोदी सरकार की चाहे, जितनी लानत-मलामत करे, चुनावों में वोट मोदी के पक्ष में पड़ते दिख रहे हैं।
अब तक की भारत की जाति आधारित राजनीति को मोदी सरकार ने बड़ी खामोशी से बदलना शुरू कर दिया है। अब आप देखेंगे कि कल तक जो वर्ग मोदी सरकार के समर्थन में मुखर दिखता था, अब उसका एक बड़ा हिस्सा या तो खामोश हो गया है या कुछ लोग दबी जुबान से विरोध करने लगे हैं। लेकिन इसके विपरीत एक बड़ा तबका, जिसकी राजनीतिक गुणा-गणित में अब तक कोई राय नहीं थी, मोदी के पक्ष में मजबूत आधार बन गया है। यह है गरीब या धनहीन तबका, जिसे वामपंथी शब्दावली में सर्वहारा वर्ग कहते रहे हैं। मोदी ने सर्वहारा शब्दावली का उपयोग नहीं किया, बल्कि खामोशी से उनके लिए काम कर उन्हें अपने पक्ष में कर लिया। राजनीतिक आधार के इस संरचनात्मक परिवर्तन को समझने में विपक्ष विफल रहा है।
चौंकाने की राजनीति
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के राजनीतिक फैसलों की बात करें तो पायेंगे कि उनके फैसलों का पूर्वानुमान लगाना आसान नहीं है। क्या किसी ने अनुमान लगाया था कि जाट बहुल हरियाणा में मनोहर खट्टर जैसे संघ कार्यकर्ता को मुख्यमंत्री बनाया जा सकता है? महाराष्ट्र जैसे प्रदेश में, जहाँ पिछड़ी जाति और मराठा की राजनीति हावी है, वहाँ देवेंद्र फडऩवीस को मुख्यमंत्री बनाने का अनुमान क्या सहज था? झारखंड में रघुवर दास का मुख्यमंत्री बनना भी इसी क्रम में है। दिल्ली में अत्यधिक चौंकाने वाला राजनीतिक फैसला विधानसभा चुनाव में किरण बेदी को ऐन मौके पर पार्टी में शामिल कर मुख्यमंत्री पद के लिए दावेदार घोषित करना रहा, हालाँकि इसका राजनीतिक लाभ नहीं मिल सका। उत्तर प्रदेश में चाहे लक्ष्मीकांत वाजपेयी के बाद केशव प्रसाद मौर्य के रूप में भाजपा अध्यक्ष का नाम घोषित करने का मौका रहा हो या विधानसभा चुनावों में पूर्ण बहुमत मिलने के बाद योगी आदित्यनाथ को मुख्यमंत्री बनाने का फैसला रहा हो, अंत समय तक किसी को थाह नहीं मिली।
चौंकाने की मोदी की यह प्रकृति विदेश यात्रा से लौटते समय अचानक पाकिस्तान में नवाज शरीफ के घर शादी में पहुँच जाने या 8 नवंबर, 2016 को नोटबंदी की घोषणा करने में भी दिखती है। मीडिया, बुद्धिजीवी तबके को मोदी के अगले कदम का अंदाज नहीं लग पाता। विपक्ष इन फैसलों पर अवाक रह जाता है। यहीं, राजनीति मोदी के हिसाब से आचरण करने लगती है।
विदेश और आकस्मिकता का मोर्चा
मोदी सरकार के कार्यकाल की एक खास विशेषता विदेशी मोर्चे पर हुआ काम है। विश्व के सामने भारत पहली बार ऐसे देश के रूप में सामने आया है, जो किसी देश या खेमे के पिछलग्गू के रूप में नहीं, बल्कि अपने राष्ट्रीय हित के आधार पर बराबरी के स्तर पर बात करने लगा है। भारत अब अपने हितों के लिए बड़े देशों से गुहार लगाता एक दयनीय देश नहीं रह गया, बल्कि अपने हितों की रक्षा के लिए वह पाकिस्तान स्थित आतंकी शिविरों पर सर्जिकल स्ट्राइक करने, चीन की नाराजगी की परवाह न करते हुए अरुणाचल प्रदेश में विकास, सड़क निर्माण, पुल निर्माण और सैन्य तैनाती, मिसाइल तैनाती जैसे कदम उठाने में पीछे नहीं हट रहा है। भारत चीन विरोधी देशों से डंके की चोट पर सैन्य और व्यापारिक रिश्ते प्रगाढ़ कर रहा है। भारत ने इस्रायल के साथ खुले तौर पर रिश्तों को आगे बढ़ाया है।
विभिन्न विकसित और विकासशील देशों के साथ भारत ने अपने हितों के आधार पर स्वतंत्र द्विपक्षीय संबंध बनाने शुरू किये हैं। भारत ने इन तीन वर्षों में विदेशों में आकस्मिक संकट के समय अपने नागरिकों को सुरक्षित वापस ले आने में नया कीर्तिमान गढ़ा है। यमन संकट के समय 6000 भारतीयों की वतन वापसी हो, सऊदी अरब में बंधक 13 भारतीय हों, टोगो या कतर में फँसे भारतीय हों या ताजा उज्मा की पाकिस्तान से वतन वापसी हो, भारत एक ऐसे देश के रूप में सामने आया है, जो दुनिया के किसी कोने में रह रहे भारतीय के साथ पूरी मजबूती से खड़ा है।
(निवेश मंथन, जून 2017)

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