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यह मोदी की जीत से ज्यादा अरविंद की हार

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Category: मई 2017

भीड़ अगर किसी को पीट रही हो तो कभी उस भीड़ का हिस्सा नहीं बनना चाहिए,

क्योंकि भीड़ में मार-पिटाई करने वाले अधिकतर लोग बिना किसी तर्क और जानकारी के हाथ-पैर चला रहे होते हैं और पिटने वाला भी अपने गुनाह से ज्यादा और कई बार बेवजह पिट जाता है। मैं दिल्ली के निगम चुनावों की ही बात कर रहा हूँ। आम आदमी पार्टी के साथ दिल्ली की जनता ने जो किया है, उसका अंदाजा हो चुका था। वह भी तब, जब कुछ क्षेत्रों में ‘आप’ सरकार ने अच्छी कोशिशें की हैं, खास तौर पर शिक्षा और स्वास्थ्य के क्षेत्र में। यह मेरा मानना है, बाकियों का मुझे पता नहीं। तो फिर सवाल है कि आम आदमी पार्टी इतनी पिटी क्यों? इसकी कई वजहें हैं, जिन्हें सुनने और विचार करने के लिए अरविंद केजरीवाल और उनकी टीम को थोड़ा सब्र और विनम्रता रखनी चाहिए, क्योंकि इसकी ही सबसे ज्यादा कमी उनमें है। ये वजह हैं -
- जरूरत से ज्यादा नकारात्मकता और विनम्रता की कमी। हर मुद्दे पर हल्ला-हंगामा, हाय तौबा मचाने से तर्क आपके साथ नहीं हो जाता। ईवीएम का मुद्दा भी ऐसा ही है। हार का ठीकरा ईवीएम के सिर फोड़ देने से आप सही नहीं साबित होते। बेहतर यह होता कि हार पर चिंतन-मनन किया जाता और पूरी गरिमा और विनम्रता के साथ हार स्वीकार कर ली जाती, अगली बार बेहतर कोशिश के आश्वासन के साथ।
- चापलूसों से घिरा होना, उन्हें ही अपने आँख-कान बना लेना। ऐसे चापलूसों ने आम आदमी पार्टी की नैया को सबसे ज्यादा डुबाया है। अरविंद की निगाहें वहीं तक देख पायेंगी, जहाँ तक वे देख सकती हैं। उनकी निगाहों की हद के बाहर क्या हो रहा है, यह अरविंद को पता ही नहीं चला और अरविंद ने यह जानने की शायद कभी कोशिश भी नहीं की। क्या मालूम इसके लिए समय भी ना निकाल पाये हों। कम लिखा है, ज्यादा समझना चाहिए।
- अरविंद को लेकर जनता में यह छवि गाढ़ी हो गयी है कि पार्टी में जो कुछ हैं वही हैं। शुरू में काफी हद तक यह सही भी था, लेकिन लोकतांत्रिक व्यवस्था में उतरने के बाद उन्हें अंदरूनी लोकतंत्र को भी बढ़ावा देना चाहिए था, जो उन्होंने बेहतर तरीके से नहीं किया। किसी भी राज्य में स्थानीय नेताओं को आगे बढ़ाने की कोशिश नहीं की गयी। दिल्ली से बैठे दलाल उन्हें हाँकने की कोशिश में लगे रहे। नतीजा इन राज्यों में उम्मीदें परवान चढऩे से पहले ही बुझ गयीं।
- अति महत्वाकांक्षा भी अरविंद की रणनीति की एक बड़ी खामी है। बेहतर होता कि एक बार में एक सीढ़ी मजबूती से चढ़ी जाती। 2019 तक प्रधानमंत्री बनने की लालसा में दिल्ली की एमसीडी भी हाथ नहीं लगी।
- खुद को ही ईमानदार समझना और बाकियों की ईमानदारी को कोई महत्व ना देना। खुद को ही आंदोलन समझ लेना और बाकियों के संघर्ष को महत्व ना देना।
- दिल्ली की बात करें तो ‘आप’ ने भी बाकी पार्टियों की तरह ही दिल्ली को देखा। पंजाबी, पुरबिया, बिहारी और पहाड़ी के चश्मे से। तो फिर जनता भी क्या करती?
कुल मिला कर अब तक ‘आप’ ने अपनी नाकामी से वैकल्पिक, जनोन्मुखी और भ्रष्टाचार मुक्तराजनीति की उम्मीदों को बहुत ज्यादा नुकसान पहुँचाया है। दिल्ली का नतीजा मोदी की जीत से ज्यादा अरविंद की हार है, क्योंकि दिल्ली में लोग वही हैं जिन्होंने लोकसभा चुनाव में मोदी को जिताने के बाद दिल्ली चुनाव में अरविंद को उससे भी बड़ी जीत दी थी। लेकिन जीत के साथ जो जिम्मेदारी आती है, उस पर उनकी पार्टी खरी नहीं उतर पायी। उम्मीद है ‘आप’ कुछ सबक लेगी। समय बदलते देर नहीं लगती।
सुशील बहुगुणा

10 साल के भ्रष्टाचार से 2 साल का अहंकार हार गया।
शैलेष चतुर्वेदी
केजरीवाल जी के जीते नेताओं से उनके हारे नेता पूछ रहे हैं, तुम्हारी ईवीएम मशीन को सही रखने का फैसला किस आधार पर लिया गया?
आलोक पुराणिक
अब्बे चुप रह... मोदी जी दिल्ली को शंघाई बनाने जा रहे हैं... और तुम ससुर ये बता रहे हो कि दिल्ली में सफाई नहीं रहती... कूड़ा है। जितनी अकल है उतना ही सोचोगे ना।
पूजा श्रीवास्तव, पत्रकार
संदेश ‘आप’ के लिए नहीं, मोदी के लिए है। जमीन खिसकने में देर नहीं लगती।
प्रीत के. एस. बेदी, विज्ञापनकर्मी
10 साल एमसीडी में भाजपा का कुशासन था, फिर भी भाजपा कैसे जीत गयी?
केजरीवाल की नकारात्मक छवि कुशासन पर भारी। आपिये ईवीएम ईवीएम इसलिए कर रहे हैं क्योंकि वे नहीं चाहते कि केजरीवाल को निशाना बनाया जाये।
कांग्रेस का क्या कहना?
खत्म हो गयी है कांग्रेस... भले भाजपा का कुशासन था, पर हम उन्हें ही मौका देंगे... भाजपा से बेहतर की उम्मीद है, तुमसे कुछ नहीं।
योगेश सिंह, मुखर मोदी-प्रशंसक
मोदी बन गये वोट मशीन
जिन लोगों को यह बात पचाने में मुश्किल हो रही है कि दिल्ली नगर निगम का चुनाव भाजपा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नाम पर जीती है, उन्हें उनके हाल पर छोड़ दीजिये। वरना क्या कारण था कि 10 वर्षों से भ्रष्टाचार और सड़ांध में डूबी एमसीडी और उस पर कब्जा जमाये भाजपा की इस बार ज़मानत जब्त ना हो जाती।
यह सिर्फ मोदी जी का नाम था और उनकी छवि थी कि दिल्ली की जनता ने पिछला सारा गुनाह भुला कर एक बार फिर एमसीडी भाजपा को सौंप दी, वह भी झाड़ू-बुहार जीत। सिर्फ एक बार के लिए इस अदना चुनाव से मोदी जी का नाम हटा कर तसव्वुर करिये, भाजपा का पत्ता साफ होता दिखेगा आपको।
सो यह मान लीजिये कि मोदी जी भाजपा के लिए वोट मशीन बन गये हैं। मोदी नाम का कार्ड एटीएम में डाला नहीं कि वोटों की गद्दी दन्न से बाहर। आपकी विचारधारा जो भी हो, लेकिन इस मामले में सच्चाई से आँखें चुराना सूरज पर थूकने के समान होगा। बाकी अपनी-अपनी विचारधारा का चश्मा पहन कर आप लोग लगे रहिये। अरे! चुनाव, चुनाव होता है। देश का पीएम निगम चुनाव के लिए वोट माँगेगा तो उसकी इज्जत घट जायेगी क्या? यह तो और अच्छी बात है। पंचायती राज में सत्ता का विकेंद्रीकरण ही तो हमारा लक्ष्य रहा है। देश का पीएम सबसे निचले पायदान पर पहुँच कर लोगों से संवाद करे, तो ये खुशी की बात होनी चाहिए या नाक-भौं सिकोडऩे वाली चीज!!
हद है मोदी विरोध की। मतलब कुछ भी बोल देंगे।
नदीम एस. अख्तर
(निवेश मंथन, मई 2017)

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