वित्त वर्ष के अंतिम पड़ाव तक पहुँचते-पहुँचते कर बचाने की कवायदें भी तेज हो जाती हैं।
ऐसे में जानकार ईएलएसएस (इक्विटी लिंक्ड सेविंग स्कीम) में निवेश की सलाह देते हैं, क्योंकि ये बढिय़ा मुनाफा दिलाने और कर बचाने दोनों लिहाज से उपयोगी साबित होते हैं। म्यूचुअल फंड के बाजार में इन्हें निवेश की पहली पाठशाला तक कहा जाता है, क्योंकि नये निवेशक अमूमन इन्हीं योजनाओं के साथ निवेश की शुरुआत करते हैं। मगर इस राह को चुनने से पहले तमाम पहलुओं पर गौर करना भी जरूरी हो जाता है।
क्यों हैं फायदेमंद?
ईएलएसएस का प्रदर्शन ही कर बचत वाली निवेश योजनाओं में उन्हें सबसे आकर्षक बनाता है। आँकड़े खुद इसकी गवाही देते हैं। ईएलएसएस ने पिछले तीन वर्षों में 18.68% और पाँच वर्षों में 17.46% सालाना औसत प्रतिफल दिया है। आय कर की धारा 80(सी) के तहत इनमें निवेश कर मुक्त होता है। हालाँकि इसके लिए न्यूनतम तीन वर्षों की लॉक इन अवधि का इंतजार करना पड़ता है। वैसे यह लॉक इन अवधि अन्य तमाम कर बचत योजनाओं की तुलना में कम ही है। ऐसे में तरलता के पैमाने पर भी ये फंड लाजवाब हैं। इक्विटी फंडों में दीर्घावधि पूँजीगत लाभ कर (लॉन्ग टर्म कैपिटल गेन टैक्स) भी पूरी तरह माफ है।
प्रतिफल, कर बचत और तरलता के अलावा ईएलएसएस कई अन्य मोर्चों पर भी फायदेमंद साबित होते हैं। मसलन इनमें लागत काफी कम आती है। इन निवेश प्रक्रिया पारदर्शी होती है। इनमें किसी तरह का प्रवेश शुल्क नहीं होता और निवेशकों से बमुश्किल 2.5-2.75% सालाना शुल्क ही लिया जाता है। कुछ योजनाओं में तो यह 2.5% से भी कम होता है। समूचा बाजार बेहतर नियमन के दायरे में है और निवेशकों के जोखिम को कम करने के लिए बाजार नियामक भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने अच्छे इंतजाम किये हैं। साथ ही शुल्कों, पोर्टफोलिओ और लेनदेन की पूरी जानकारी सार्वजनिक दायरे में होती है। कुल मिला कर निवेश सलाहकार इक्विटी में निवेश की शुरुआत के लिए ईएलएसएस को सबसे उपयुक्त विकल्प मानते हैं। इसमें भी उनकी राय यही होती है कि एकमुश्त और आपाधापी में निवेश करने के बजाय निरंतर रूप से निवेश करना बेहतर होता है, जिसके लिए एसआईपी सबसे बढिय़ा होता है।
गलतियों से बचें
अक्सर देखने को मिलता है कि कर बचाने की जुगत में वित्त वर्ष की अंतिम तिमाही में एकाएक ईएलएसएस निवेश में बाढ़ आ जाती है। म्यूचुअल फंड बाजार की शीर्ष संस्था एम्फी के आँकड़ों के अनुसार ईएलएसएस में कुल निवेश का तकरीबन 50% केवल जनवरी-मार्च तिमाही में ही आता है। अकेले मार्च के महीने में ही करीब 25% तक निवेश होता है।
एकाएक होने वाले इस निवेश के कई नुकसान हैं। एक तो निवेशक को एकमुश्त बड़ी नकदी का इंतजाम करना पड़ता है। दूसरे, उस समय बाजार अगर अस्थिरता का शिकार हो तो जोखिम भी उसी अनुपात में बढ़ जाता है। मसलन, अगर बाजार तेजी पर सवार है तो आपको ऊँचे मूल्य पर यूनिटें खरीदनी पड़ती हैं और बाजार में गिरावट आने पर उन यूनिटों का भाव गिर जाता है। ऐसे में एसआईपी के जरिये निरंतर निवेश करते रहने से अचानक बोझ भी नहीं बढ़ता और आपाधापी में जोखिम भरी परिसंपत्तियों पर ही दाँव नहीं लगाना पड़ता।
अक्सर निवेशक तीन साल की लॉक इन अवधि समाप्त होते ही अपने निवेश को भुना कर निकल जाते हैं। इससे कर बचत का फायदा तो मिल जाता है लेकिन जानकार इसे सही नहीं मानते। सलाह यही दी जाती है कि कम-से-कम पाँच से सात वर्षों के लिए निवेश किया जाये तो प्रतिफल का दायरा और बढ़ कर निवेशक के लिए ज्यादा फायदेमंद हो सकता है।
इन बातों का रखें खयाल
वित्त वर्ष खत्म होते ही अप्रैल से ईएलएसएस में एसआईपी के जरिये निवेश शुरू कर दें। फंड का चयन सावधानी और समझदारी के साथ करना चाहिए। केवल मौजूदा दौर में बेहतर प्रदर्शन करने वाले फंड के मोहपाश में फँसने के बजाय फंड के पिछले तीन से पाँच वर्षों के प्रदर्शन पर गौर करने के बाद ही उसका चयन करना चाहिए। फंड चयन के बाद भी अधीरता से बचना चाहिए। मसलन, हर साल किसी नये फंड की तलाश करने के बजाय उसी फंड में निवेश को मजबूत बनाने पर दाँव लगाना चाहिए। अगर कम जोखिम और संतुलित प्रतिफल वाले फंड चयन की बारी आती है तो मुख्यत: लार्ज कैप यानी बड़ी कंपनियों में पैसा लगाने वाले फंडों में निवेश की सलाह दी जाती है, क्योंकि उनमें अस्थिरता अपेक्षाकृत कम देखी जाती है। हालाँकि हाल में कुछ मिड कैप फंड भी बेहतर विकल्प के रूप में उभरे हैं।
अगर बेहतर प्रतिफल चाहते हों तो सिर्फ तीन वर्षों के बाद ही फंड पर विराम न लगायें बल्कि इस कवायद को पाँच से सात वर्षों के लिए अंजाम तक पहुँचायें। अक्सर निवेशक लाभांश के लालच में आ जाते हैं। मगर लाभांश असल में आपके खुद के पैसों से ही मिलता है। अगर आपको वास्तव में समय-समय पर कुछ रकम की जरूरत नहीं पड़ती तो लाभांश भुनाने का विकल्प नहीं चुनना चाहिए। अगर इसमें वाकई विजेता बनना चाहते हैं, तो धैर्य के साथ लंबे समय के लिए निवेश करें।
(निवेश मंथन, फरवरी 2017)