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चुनाव बाद गुत्थियाँ सुलझेंगी या उलझेंगी?

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Category: अप्रैल 2014

राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :

लोकतंत्र का चुनावी उत्सव धीरे-धीरे चरम की ओर है।

आजाद भारत के चुनावी इतिहास में ऐसा पहली बार देखने में आ रहा है कि सत्तारूढ़ कांग्रेस में चुनावी नतीजों के आने से पहले ही हार मान ली है। मौजूदा सबसे बड़े विपक्षी दल भारतीय जनता पार्टी के समर्थक, कार्यकर्ता और नेता यह मान चुके हैं कि केंद्र में मोदी सरकार काबिज हो चुकी है। ऐसी ही मजबूत धारणा शेयर बाजार की भी है। कई बड़ी विदेशी निवेशक कंपनियाँ चुनावी बिगुल बजने के पहले ही साफ तौर पर मोदी के सत्ता-तिलक का उद्घोष कर चुकी हैं। अखबारों और टीवी न्यूज चैनलों की मानें तो देश में मोदी की प्रचंड लहर है। ताजा चुनावी सर्वेक्षणों में भाजपा और एनडीए गठबंधन की जीत का ग्राफ लातार बढ़ रहा है। पर अब तक किसी भी चुनावी सर्वेक्षण में न तो भाजपा को, न ही उसके गठबंधन को स्पष्ट बहुमत मिलता दिख रहा है।
मोदी की रैलियों में निरंतर विशाल भीड़ उमड़ती है। टीवी युग में यह अद्भुत घटना है। ऐतिहासिक रूप से इंदिरा गांधी की जनसभाओं में ऐसी भीड़ उमड़ा करती थी। चुनाव परिणामों में भी इसका असर साफ झलकता था। आपातकाल के बाद 1977 में जनता पार्टी की चुनावी सभाओं में भी अपार भीड़ होती थी। तब लोकसभा चुनावों में उत्तर भारत में कांग्रेस का सूपड़ा साफ हो गया था और उत्तर प्रदेश की 85 में से 85 लोकसभा सीटों पर कांग्रेस को करारी पराजय मिली थी।
उस समय सपने में भी यह सोचना मुश्किल था कि इंदिरा गांधी और उनके बेटे संजय गांधी को 1977 के चुनाव में हार का सामना करना पड़ेगा। पर देश में टीवी का प्रसारण बढऩे के साथ-साथ नेताओं की सभाओं में भीड़ कम होती चली गयी। इसके लिए कहा गया कि टीवी युग से पहले जनसभाओं में भीड़ अपने नेताओं को देखने आती थी। लेकिन टीवी पर नेताओं के दर्शन सुलभ होने से यह आकर्षण कम हो गया। इस लिहाज से मोदी की सभाओं में उमड़ती भीड़ ऐतिहासिक है। पर चुनावी सर्वेक्षणों के अनुमानित नतीजों में इसका पूरा असर नहीं दिखायी देता। यह एक गुत्थी है।
यह भीड़ मोदी लहर को दर्शाती है या कांग्रेस के खिलाफ व्यापक जनाक्रोश को? यदि यह मोदी लहर है तो भाजपा के गठबंधन को स्पष्ट बहुमत का जादुई आँकड़ा 272 छूने में कोई दिक्कत नहीं आनी चाहिए। अन्यथा यह मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि यह जनादेश मूलत: कांग्रेस के खिलाफ है। जहाँ जिसका प्रभाव था, उस राजनीतिक दल ने उसे लपक लिया।
कांग्रेस के खिलाफ उपजे व्यापक जनाक्रोश में यूपीए शासन में रसोई गैस, डीजल और पेट्रोल में हुई भारी कीमत वृद्धि का बड़ा हाथ है। रसोई गैस की कीमतें बढ़ायी गयीं, फिर सब्सिडी वाले रसोई गैस सिलिंडरों की संख्या एक साल में छह कर दी गयी। इस निर्णय से उपजे आक्रोश को खुद कांग्रेस ही नहीं झेल पायी और विवश हो कर उसे इनकी संख्या छह से 12 करनी पड़ी।
डीजल की कीमतों में निरंतर वृद्धि के फैसले पर तमाम विपक्षी दल यूपीए सरकार के खिलाफ सड़कों पर उतर आये थे। आगामी सरकार क्या डीजल, पेट्रोल और गैस कीमतों में वृद्धि को वापस लेगी, या यह केवल राजनीति थी?
सस्ते खाद्यान्नों, न्यूनतम समर्थन मूल्य, उर्वरकों की कीमतों पर तमाम दलों की राजनीति टिकी हुई है। यूपीए शासन के 10 सालों में गेहूँ और धान के न्यूनतम समर्थन मूल्य दोगुने हो गये। 2004-05 में गेहूँ का न्यूनतम समर्थन मूल्य 640 रुपये प्रति क्विंटन था, जो 2012-13 में बढ़ कर 1350 रुपये प्रति क्विंटल हो गया। इस दौरान धान का न्यूनतम समर्थन मूल्य 560 रुपये प्रति क्विंटल से बढ़ कर 1250 रुपये प्रति क्विंटल हो गया। इसका सीधा असर खाद्य सब्सिडी पर पड़ा है। पिछले 10 सालों में खाद्य सब्सिडी तिगुनी हो गयी है। जाहिर है कि खाद्य सुरक्षा अधिनियम लागू होने से यह सब्सिडि और बढ़ जायेगी। आगामी सरकार का इन खर्चों को लेकर क्या रुख रहेगा, यह देखना दिलचस्प होगा।
केंद्र में आगामी सरकार बनाने की प्रबल दावेदार भाजपा का रुख इन खर्चों पर आलोचनात्मक रहा है। कॉर्पोरेट क्षेत्र खाद्य, उर्वरक और ईंधन सब्सिडी को अनुत्पादक और तेज आर्थिक वृद्धि का सबसे बड़ा रोड़ा मानता है। नये भूमि अधिग्रहण कानून को लेकर भी इसकी यही राय है। 1991 के बाद से ही विश्व बैंक और कॉर्पोरेट क्षेत्र का एजेंडा ही केंद्र सरकारों की सर्वोच्च प्राथमिकता रही है। देश का एक बड़ा तबका मानता है कि कॉर्पोरेट क्षेत्र ही अब देश की हवा तय करता है। इसलिए चुनावों के बाद सब्सिडी, प्रशासनिक कीमतों और सामाजिक कल्याण के खर्चों को ले कर आगामी सरकार के रुख से देश की ग्रह-दशा और चाल तय होगी।
(निवेश मंथन, अप्रैल 2014)

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