राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक:
प्रणव मुखर्जी का वित्त मंत्री पद छोडऩा और उनको राष्ट्रपति बनाने का रहस्य आने वाले समय में राजनीतिक टिप्पणीकारों का सबसे दिलचस्प विषय होगा। वित्त मंत्रालय छोड़ते समय 25 जून को उन्होंने अपने 45 सालों के राजनीतिक सफर को बड़े भावुक होकर याद किया। पर बतौर वित्त मंत्री अपने कार्यकाल पर एक शब्द भी बोलना उन्हें मुनासिब नहीं लगा। उन्हें यूपीए-2 सरकार का राजनीतिक संकटमोचक कहा गया है। लेकिन बाजारवादी अर्थ-जगत उन्हें मौजूदा खराब आर्थिक हालत के लिए कसूरवार मानता है।
कॉर्पोरेट जगत और शेयर बाजार की कुछ हस्तियों ने यह कहने में भी कोई संकोच नहीं किया कि नाकारा और संकटकारक वित्त मंत्री से छुटकारा पाने के लिए उन्हें अलंकारी राष्ट्रपति पद पर प्रतिष्ठित कर देने के अलावा और कोई बेहतर विकल्प नहीं था। आधुनिक प्रबंधतंत्र का क्रूर तरीका है कि राह में बने कंटक और विफल व्यक्ति को अलंकारिक पद पर प्रोन्नत कर उससे छुटकारा पा लेना चाहिए। विख्यात कॉर्पोरेट रणनीतिकार लॉरेंस जे पीटर ने अपनी किताब ‘पीटर प्रिंसिपल’ में प्रबंध की इस क्रूर अवधारणा को विवेचित किया है कि अंतत: हर व्यक्ति अपनी अक्षमता के शिखर पर पहुँचता है। और, वहीं से उसकी विदाई यात्रा शुरू हो जाती है। देश के एक बड़े मीडिया घराने के मालिक ने नब्बे के दशक में अनेक वरिष्ठ लोगों को संपादक बना कर बाहर का रास्ता दिखा दिया था।
प्रणव मुखर्जी का वित्त मंत्री के रूप में तीन वर्षों का दूसरा कार्यकाल काफी चुनौती भरा रहा। जब वे 2009 में वित्त मंत्री बने तो वैश्विक अर्थव्यवस्था अमेरिका से उपजे गहरे आर्थिक संकट से गुजर रही थी। ऐसे में उन्होंने भारतीय अर्थव्यवस्था को मंदी से उबारने के लिए मुक्त हस्त से सरकारी खजाना खोल दिया। लेकिन उसके बाद देश में आर्थिक हालत बेकाबू होते चले गये। प्रणव मुखर्जी के इस कार्य काल में वृद्धि दर गिर कर नौ सालों के न्यूनतम स्तर 5.2% पर आ गयी। महँगाई 2009 से अब तक बेकाबू ही रही, खासतौर से खाद्यान्नों की महँगाई। सरकारी घाटे ने सारे सरकारी आकलन ध्वस्त कर दिये और वित्त वर्ष 2011-12 में यह जीडीपी के 5.9% के स्तर पर पहुँच गया। भारी करारोपण के बाद भी चालू वित्त वर्ष के सरकारी घाटे का आकलन 5.1% का है और वह भी अव्यावहारिक आँकड़ों पर खड़ा है। चालू घाटे के बढ़ते ऐतिहासिक घाटे ने डॉलर के सापेक्ष रुपये को कमजोर बना दिया।
प्रणव मुखर्जी के दो निर्णयों ने रुपये की हालत और पतली कर दी है - पहला वोडाफोन मामले को लेकर आयकर कानून में बदलाव। दूसरा गार (कर वंचन रोधी कानून)। इससे अर्थव्यवस्था पर काबिज सुधारवादी शक्तियों की पैरों तले धरती निकल गयी। विदेशी मुद्रा प्रवाह और सूखने लगा। नतीजतन रुपये की विनिमय दर ऐतिहासिक रूप से न्यूनतम स्तर पर पहुँच गयी। अब भी रुपये की कीमत को लेकर भारी अनिश्चितता बनी हुई है। यूपीए सरकार की इन सब नाकामियों का ठीकरा प्रणव मुखर्जी के सिर फूटा है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि यूपीए-2 सरकार में प्रणव मुखर्जी सत्ता के शक्तिशाली केंद्र के रूप में उभरे और उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की अनदेखी शुरू कर दी। कई महत्वपूर्ण आर्थिक निर्णयों में वित्त मंत्री ने प्रधानमंत्री को विश्वास में भी नहीं लिया। इनमें गार और वोडाफोन संबंधी निर्णय प्रमुख हैं। ब्रिटिश प्रधानमंत्री गोर्डन ब्राउन को प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आश्वस्त किया था कि वोडाफोन को न्यायिक लड़ाई के अधिकार से वंचित नहीं किया जायेगा। लेकिन हुआ ठीक इससे उल्टा। इससे अंतरराष्ट्रीय बिरादरी में न केवल प्रधानमंत्री की किरकिरी हुई बल्कि उदारीकरण के आराध्य विदेशी निवेशकों का भरोसा भी टूटा। रिजर्व बैंक के गवर्नर डी सुब्बाराव के कार्यकाल को बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री इच्छुक थे, लेकिन प्रणव मुखर्जी नहीं। इन मनभेदों की बढ़ती खाई ने आर्थिक हालात को और भयावह बना दिया। इतना तय है प्रजातांत्रिक संसदीय व्यवस्था में कोई वित्त मंत्री कितना भी शक्तिशाली क्यों न हो, पर प्रधानमंत्री के समर्थन और विश्वास के बिना उसका नाकारा होना सुनिश्चित है। प्रणव मुखर्जी अपनी काबलियत के कारण नहीं, बल्कि अहंकार और महत्वाकांक्षा के कारण आर्थिक हालतों को काबू करने में नाकाम रहे।
(निवेश मंथन, अगस्त 2012)