प्रणव :
अंग्रेजी में एक मशहूर कहावत है कि ‘देयर इज नो फ्री लंच’, यानी कुछ भी मुफ्त नहीं मिलता।
लगता है कि भारतीय बैंक भी इस कहावत को पूरी तरह अमल में लाने के लिए कमर कस चुके हैं। बैंकों द्वारा विभिन्न तरह के लेन-देनों के एवज में वसूल किये जाने वाले शुल्कों को इसी सिलसिले में देखा जा सकता है। नये वित्त वर्ष के आरंभ के साथ ही कई बैंकों ने लेन-देन पर शुल्कों को फिर से लगाने का ऐलान कर दिया है। जहाँ बैंक इस कदम के पीछे अपनी मजबूरियाँ बता रहे हैं, वहीं उपभोक्ताओं के लिए इससे मुश्किलें बढऩा लाजिमी है।
बैंकों की दलील
भले ही कई मामलों में सरकारी और निजी बैंकों की राय मेल नहीं खाती हो, लेकिन लेन-देन पर शुल्क वसूलने को लेकर वे एकमत हैं। आईसीआईसीआई बैंक, एचडीएफसी बैंक और ऐक्सिस बैंक जैसे निजी बैंक जहाँ एक मार्च से ही लेन-देन पर शुल्क वसूलने लगे हैं, वहीं देश का सबसे बड़ा कर्जदाता बैंक - भारतीय स्टेट बैंक भी अब इस मुहिम में शामिल हो गया है।
न केवल बैंकिंग लेन-देन, बल्कि खातों में न्यूनतम राशि न होने पर भी बैंक जुर्माना लगाने जा रहे हैं। बैंकिंग लेन-देन पर शुल्क लगाने के पीछे बैंकों की दलील है कि नोटबंदी के दौर में लेन-देन पर शुल्क माफ करने से उन्हें नुकसान हो रहा था, और चूँकि अब नोटबंदी की मुश्किलें भी खत्म हो गयी हैं, लिहाजा अब उनके लिए लेन-देन पर शुल्क लगाने के अलावा और कोई विकल्प नहीं है, अन्यथा उनका नुकसान होता रहेगा। साथ ही इसका एक मकसद नकद लेन-देन वाली व्यवस्था को हतोत्साहित करना भी बताया जा रहा है, क्योंकि अभी भी भारत में लेन-देन का मुख्य जरिया नकदी आधारित ही है।
कौन वसूलेगा कितना
एचडीएफसी बैंक बचत और वेतन खातों पर चार से पाँच मुफ्त लेन-देनों के बाद शुल्क लगायेगा, जिसका दायरा 100 से 150 रुपये तक हो सकता है। यहाँ 25,000 रुपये से ऊपर के नकद लेन-देन पर प्रति हजार रुपये पर 5 रुपये का शुल्क देना होगा। इसी तरह आईसीआईसीआई बैंक और ऐक्सिस बैंक भी इसी राह पर हैं, जहाँ महीने में चार से अधिक लेन-देनों पर शुल्क वसूला जायेगा। देश में सबसे ज्यादा खाताधारकों वाले एसबीआई में अब हर महीने सिर्फ तीन लेन-देन ही मुफ्त हो सकते हैं। उसके बाद एक तय सीमा से अधिक के लेन-देन पर 50 रुपये और सेवा कर देना होगा।
लेन-देन पर शुल्क की वसूली केवल भौतिक लेन-देन तक ही सीमित नहीं है, बल्कि ऑनलाइन लेन-देन भी इसकी जद में हैं। मिसाल के तौर पर एसबीआई को ही लें, जिसने आईएमपीएस के तहत 1,000 रुपये के लेन-देन को तो शुल्क मुक्त रखा है, लेकिन 1,000 रुपये से ऊपर की राशि पर शुल्क लिया जायेगा। इसमें न्यूनतम डेढ़ रुपये और सेवा कर लिया जायेगा। अगर लेन-देन यूएसएसडी के जरिये किया जायेगा तो यह शुल्क 11.50 रुपये होगा जिसमें सेवा कर अलग से लिया जायेगा। इसी तरह आईएमपीएस के मामले में 2 रुपये और सेवा कर, तो यूपीआई के जरिये 12 रुपये के साथ में सेवा कर भी वसूल किया जाएगा। इसके अलावा एसबीआई ने अब अपने खाताधारकों को खाते में न्यूनतम राशि के मोर्चे पर भी एक बड़ा झटका दिया।
हालाँकि इस पर हुई तीखी प्रतिक्रिया के बाद सरकार की ओर से एसबीआई से इस पर पुनर्विचार के लिए कहा गया था, लेकिन एसबीआई प्रमुख अरुंधती भट्टाचार्य ने बैंक के इस फैसले का मजबूती से बचाव किया। वैसे इसमें प्रधानमंत्री जन-धन खातों को छूट देकर संभावित राजनीतिक टकराव से बचते हुए एक तरह से बीच का रास्ता तलाशा गया है।
अब एसबीआई ने खाते में न्यूनतम राशि का पैमाना भौगोलिक स्तर पर तय किया है। ग्रामीण, अर्ध-शहरी एवं महानगरीय शाखाओं के लिए अलग पैमाना रखा गया है। खातों में न्यूनतम राशि न होने की स्थिति में अधिकतम 100 रुपये के साथ ही सेवा कर के रूप में हर्जाना चुकाना होगा। ग्राहकों को गलत पता बताने का भी खामियाजा भुगतान पड़ेगा। गलत पता दर्ज कराने पर भी 100 रुपये और सेवा कर देना होगा। वहीं बीमा प्रीमियम के लिए भी अधिक राशि चुकानी पड़ेगी, क्योंकि बीमा नियामक ने बीमा एजेंटों का कमीशन बढ़ा दिया है।
मुनाफाखोरी या मजबूरी?
निश्चित रूप से बैंकों की इस कवायद पर बैंकिंग नियामक भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने किसी तरह की आपत्ति नहीं जतायी है, जो यही दर्शाता है कि सैद्धांतिक रूप से उसे इस पर कोई एतराज नहीं। हालाँकि शुल्क वसूलने की सीमाओं पर जरूर चर्चा हो रही है।
दूसरी ओर बैंक इसे अपनी दलीलों से जायज ठहरा रहे हैं। उनका कहना है कि ग्राहकों के लिए विभिन्न स्तरों पर सेवा उपलब्ध कराने पर उन्हें काफी खर्च उठाना पड़ रहा है और इसकी भरपायी के लिए उन्हें कहीं-न-कहीं से वित्तीय संसाधनों का बंदोबस्त तो करना ही होगा। वहीं कर्ज की माँग में पहले से ही कमी आ रही है और कर्ज की दरों में बढ़ोतरी करने की गुंजाइश उनके पास नहीं है। फिर नोटबंदी के बाद उनके पास नकदी की भी किल्लत नहीं है, जिससे उनके कोष की सीमांत लागत भी कम ही हुई है और अब कर्ज की दर का निर्धारण भी उसके अनुसार ही होता है।
बैंकों का यह भी कहना है कि जन-धन खातों के रखरखाव में भी उन्हें काफी खर्च करना पड़ रहा है, क्योंकि उनमें बड़े पैमाने पर निष्क्रिय या बेहद कम रकम वाले खाते हैं। ऐसे में उनकी भरपायी के लिए भी किसी और जगह से वित्त का बंदोबस्त करना होगा।
(निवेश मंथन, अप्रैल 2017)