Nivesh Manthan
Menu
  • Home
  • About Us
  • Download Magzine
  • Blog
  • Contact Us
  • Home/
  • 2017/
  • जून 2017/
  • दिल्ली में निवेशक चाय पार्टी : खपत आधारित शेयरों में बनेंगे पैसे
Follow @niveshmanthan

रोजगार बिना विकास, असली चुनौती या फसाना?

Details
Category: जून 2017

राजीव रंजन झा :

मोदी सरकार के तीन साल का लेखा-जोखा लेते समय रोजगार-विहीन विकास इन दिनों फिर चर्चा में है।

दिलचस्प है कि 2014 में भाजपा के चुनाव प्रचार में भी कांग्रेस-नीत यूपीए सरकार के 10 साल के कार्यकाल को रोजगार-विहीन विकास का काल बताया गया था। मोदी सरकार की सफलता-विफलता आँकने के लिए रोजगार एक अहम पैमाना है, क्योंकि 2014 के चुनावी वादों में नरेंद्र मोदी ने रोजगार उपलब्ध कराने के काफी बड़े वादे किये थे। उन्होंने कहा था कि भाजपा सरकार हर साल एक करोड़ रोजगार पैदा करेगी।
पर मोदी सरकार अपने तीन साल के कार्यकाल में रोजगार सृजन के मोर्चे पर कितनी सफल रही है, इसका ठोस आकलन करना आसान नहीं है। आखिर रोजगार के मामले में सरकार की सफलता या विफलता मापें कैसे? जैसा कि नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबरॉय की टिप्पणी में आप देख सकते हैं, एनएसएस के आँकड़े 2011-12 के हैं, यानी उनसे 2014 से अब तक की घटत-बढ़त नहीं पता चल सकती। जिस एक आँकड़े की इन दिनों बड़ी चर्चा हो रही है, वह श्रम (लेबर) ब्यूरो का आँकड़ा है। श्रम ब्यूरो के तिमाही आँकड़े सामने आते हैं। इस तिमाही सर्वेक्षण की शुरुआत 2009 में हुई थी। इन आँकड़ों को देखें तो मोदी सरकार रोजगार के मोर्चे पर बुरी तरह विफल है। इसके मुताबिक वर्ष 2015 और 2016 में नये रोजगार की संख्या वर्ष 2009 से अब तक के सबसे निचले स्तरों पर है।
मगर वित्त मंत्री अरुण जेटली ने सरकार के तीन साल का लेखा-जोखा रखते हुए संवाददाताओं से बातचीत में रोजगार-विहीन विकास के सवाल को यह कह कर खारिज कर दिया कि ‘कई बार कुछ लोगों को प्रचार सामग्री भी चाहिए होती है।‘ ‘आलोचकों की ओर संकेत करते हुए उन्होंने कहा, ‘आरंभ में था कि पहले के सुधारों को ही आगे बढ़ाया जा रहा है, बड़े सुधार नहीं किये जा रहे हैं। जीएसटी और नोटबंदी के बाद जब उस तर्क में कोई दम नहीं बचा तो मैं पिछले कुछ दिनों से देख रहा हूँ कि रोजगार-विहीन विकास है।‘
उन्होंने इस मुद्दे पर सफाई देते हुए कहा, ‘रोजगार आर्थिक संरचना के बाहर पैदा नहीं होते हैं। अगर आपकी आर्थिक व्यवस्था बढ़ती है तो स्वाभाविक है कि औपचारिक क्षेत्र में भी (रोजगार) होंगे, और इस देश में अनौपचारिक क्षेत्र में तो और ज्यादा तेजी से होते हैं। पर किसी के पास अनौपचारिक क्षेत्र का प्रामाणिक आँकड़ा नहीं होता, इसलिए ऐसी शब्दावली का प्रयोग आरंभ हो जाता है।‘
खैर, श्रम ब्यूरो के आँकड़ों को ही गौर से देखें, तो इनके मुताबिक नये रोजगार की संख्या वर्ष 2011 के लगभग 9 लाख से घट कर वर्ष 2012 में ही अचानक लगभग 3 लाख पर आ गयी थी। वर्ष 2015 में यह घट कर 2 लाख से भी नीचे गयी और 2016 में कुछ सुधर कर 2.31 लाख रही। इसलिए कहा जा सकता है कि नये रोजगार में कमी का सिलसिला यूपीए-2 के समय शुरू हो गया था और वह रुझान 2015 तक चलता रहा। अब 2016 में यह गिरावट थमी है और उम्मीद करनी चाहिए कि 2017 के आँकड़े कुछ और बेहतर होंगे।
रोजगार के मसले पर बोलते समय भाजपा के अध्यक्ष अमित शाह कहीं ज्यादा मुखर रहते हैं। वे ध्यान दिलाते हैं कि श्रम विभाग की रिपोर्ट में बुनियादी ढाँचा, आवासीय क्षेत्र और पर्यटन जैसे वे क्षेत्र शामिल नहीं हैं, जिन पर मोदी सरकार का खास जोर रहा है। दूसरी ओर, वे यह भी कहते हैं कि सवा अरब की आबादी वाले देश में सबको नौकरियाँ दे कर बेरोजगारी दूर नहीं की जा सकती। वे स्किल इंडिया समेत मोदी सरकार की उन तमाम योजनाओं को गिनाते हैं, जो युवाओं को स्वरोजगार की ओर ले जाते हैं। मुद्रा योजना के तहत 7.45 करोड़ से अधिक लोगों को बिना किसी रेहन या गारंटी के अपना उद्यम शुरू करने के लिए आसान और सस्ते ऋण दिये गये हैं।
पर इससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि ये आँकड़े देश में रोजगार की समूची तस्वीर पेश ही नहीं करते। श्रम ब्यूरो का सर्वेक्षण आठ चुनिंदा क्षेत्रों में 10 या इससे अधिक कर्मचारियों वाले उपक्रमों के सर्वेक्षण पर आधारित है। इन आठ क्षेत्रों में लगभग 9.2 करोड़ कामगार हैं, जो देश में गैर-कृषि गतिविधियों में संलग्न 10.8 करोड़ कर्मचारियों का 85% हैं। पर श्रम ब्यूरो का सर्वेक्षण इन आठ क्षेत्रों के सभी 9.2 करोड़ कामगारों का नहीं है, बल्कि केवल 2 करोड़ ऐसे कामगारों का है, जो 10 या उससे अधिक कर्मचारियों वाले प्रतिष्ठानों में काम कर रहे हैं।
गौरतलब है कि 2013-14 की आर्थिक जनगणना के अनुसार देश के कुल रोजगार में केवल 21.15% हिस्सेदारी ऐसे उपक्रमों की है, जिनमें 10 या इससे ज्यादा लोग काम करते हों। सबसे ज्यादा 69.52% लोग 1-5 कर्मचारियों वाले उपक्रमों में रोजगार पाते हैं। ऐसे में श्रम ब्यूरो के आँकड़ों से कोई नतीजा निकालना बेहद भ्रामक हो सकता है। दरअसल खुद श्रम विभाग के सर्वेक्षण की रिपोर्ट में ही कहा गया है कि यह देश में बेरोजगारी के बारे में कोई सूचना नहीं देता है।
भारत में रोजगार की कमी हमेशा एक बड़ा मुद्दा रही है। पर योजना आयोग के पूर्व उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने हाल में एक लेख में इस विसंगति की ओर इशारा किया कि 2011-12 के एनएसएस के मुताबिक देश में बेरोजगारी दर 2.2% है, जो तुलनात्मक रूप से बहुत कम है। फिर तो अन्य देशों की तुलना में भारत में बेरोजगारी एक की समस्या है ही नहीं।
मगर फिर ऐसा क्यों होता है कि बहुत निचले स्तर की सरकारी नौकरियों के लिए भी हजारों, और कभी-कभी लाखों आवेदन आ जाते हैं? पहली नजर में इसका कारण सरकारी नौकरियों के साथ जुड़ी सुरक्षा भावना है। इसके अलावा, अहलूवालिया खुद ही जिक्र करते हैं कि निचले स्तरों पर सरकारी नौकरिंयों में बाजार दरों की तुलना में ज्यादा वेतन मिलने के चलते लाखों आवेदन आते हैं। यह जरूरी नहीं है कि इनके सभी आवेदक बेरोजगार ही हों।
पर गौर करने वाली बात यह है कि कहीं सरकारी नौकरियों में ऊपरी कमाई का आकर्षण भी तो इसकी एक प्रमुख वजह नहीं है? ध्यान दें कि कई राज्यों में लोकपाल के छापों में बिल्कुल निचले स्तर के सरकारी कर्मचारियों के पास भी अरबों की काली कमाई के काफी मामले सामने आये हैं। खैर, वह एक अलग विषय है।
संगठित क्षेत्र में रोजगार सृजन का सीधा संबंध नये पूँजीगत निवेश से है। कंपनियाँ अगर क्षमता विस्तार के लिए नयी इकाइयाँ लगायेंगी, तो उनमें लोगों को रोजगार भी मिलेगा। पर इस समय तो अतिरिक्त उत्पादन क्षमता लेकर बैठा निजी क्षेत्र अब तक नये पूँजीगत निवेश की राह पर बढ़ा ही नहीं है। अगर निजी निवेश रफ्तार पकड़े तो उससे रोजगार सृजन में मदद जरूर मिलेगी। मगर यूपीए-2 के समय से ही साल 2012 से निजी निवेश में लगातार सुस्ती बनी हुई है।
मोदी सरकार के आने के बाद यह उम्मीद जगी थी कि निजी क्षेत्र उत्साहित हो कर पूँजीगत निवेश के रास्ते पर बढ़ेगा, पर यह उम्मीद अब तक फलित नहीं हुई है। हालाँकि अब जानकारों को उम्मीद है कि कई क्षेत्रों में खपत बढऩे की वजह से 2017-18 में नये सिरे से क्षमता विस्तार की जरूरत पड़ेगी। ऐसा होने पर इन क्षेत्रों में रोजगार सृजन भी होगा।
मोदी सरकार ने बीते तीन वर्षों में सरकारी निवेश को जरूर बढ़ाया है। पर इसका एक मुख्य जोर सड़क निर्माण पर है। इस क्षेत्र में पैदा होने वाले ज्यादातर रोजगार अकुशल श्रमिकों के लिए होते हैं। साथ ही, ठेके पर काम कराये जाने की वजह से रोजगार सृजन के आधिकारिक आँकड़ों में इसका योगदान कम ही दर्ज हो पाता है।
चाहे सूचना तकनीक (आईटी) का क्षेत्र हो, या विनिर्माण (मैन्युफैक्चरिंग) का, कंपनियाँ स्वचालन या ऑटोमेशन के रास्ते पर चल कर लागत कम रखने की कोशिश कर रही हैं।
स्वचालन के इसी रुझान की ओर नीति आयोग के सदस्य बिबेक देबरॉय भी इशारा कर रहे हैं, जब वे कहते हैं कि 1991 में हुए आर्थिक सुधारों के बाद से पूँजी की लागत ज्यादा घटने से संगठित क्षेत्र का झुकाव पूँजीगत निवेश की ओर बढ़ा है। मतलब यह है कि कोई कंपनी ज्यादा लोगों को नौकरी पर रख कर संयंत्रों और मशीनों पर कम पूँजीगत निवेश करने के बदले फायदेमंद यह पाती है कि कम लोगों को नौकरी पर रख कर पूँजीगत निवेश ज्यादा किया जाये। मैन्युफैक्चरिंग क्षेत्र में अधिक पूँजी लागत वाली तकनीकों के बढ़ते उपयोग के रुझान का जिक्र मोंटेक सिंह अहलूवालिया ने भी किया है। अहलूवालिया का कहना है कि गैर-कृषि रोजगार में वृद्धि का अधिकांश हिस्सा निर्माण (कंस्ट्रक्शन) और सेवा (सर्विस) क्षेत्र में होना चाहिए।
(निवेश मंथन, जून 2017)

We are Social

Additionaly, you are welcome to connect with us on the following Social Media sites.

  • Like us on Facebook
  • Follow us on Twitter

Download Magzine

    Overview
  • 2016
    • July 2016
    • February 2016
  • 2014
    • January

बातचीत

© 2023 Nivesh Manthan

  • About Us
  • Blog
  • Contact Us
Go Top