सुभाष लखोटिया, कर और निवेश सलाहकार :
कोई खरीदार किसी खास तिथि को आंशिक भुगतान करने के बाद संपत्ति खरीदता है और उसे वह संपत्ति आवंटित कर दी जाती है।
फिर वह किस्तें चुकाता है और अंतत: बाद की तारीख में उसे उस संपत्ति का अधिकार (पजेशन) दे दिया जाता है। लेकिन जब वह उस संपत्ति को बेचने के बारे में सोचता है तो सवाल उठता है कि उसकी खरीद की तारीख कौन सी होगी? यह तारीख अहम है क्योंकि इसी से पता चलता है कि उसका लाभ शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन है या लांग टर्म कैपिटल गेन।
इस संदर्भ में पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय द्वारा विनोद कुमार जैन बनाम सीआईटी व अन्य (344 आईटीआर 501) के मामले में सुनाया गया निर्णय महत्वपूर्ण है। कर निर्धारिती (टैक्स एसेसी) ने आकलन वर्ष 1989-90 के लिए दाखिल आयकर रिटर्न में उल्लेख किया था कि नयी दिल्ली-स्थित आवासीय फ्लैट की बिक्री से होने वाले कैपिटल गेन पर उसे कर से छूट है। उसने दावा किया था कि 31 जनवरी 1989 को उसने 3.80 लाख रुपये का एक अन्य फ्लैट नयी दिल्ली में ही खरीदा था और इस तरह उसे हुए कैपिटल गेन पर कर से छूट है।
आकलन अधिकारी के अनुसार, निर्धारिती को डीडीए की वजीरपुर फेज 3 आवासीय योजना के तहत 12 मार्च 1986 को फ्लैट आवंटित हुआ था। इसकी लागत 1,49,060 रुपये थी और उसने इसे 6 जनवरी 1989 को 2.25 लाख रुपये में बेच दिया। इस तरह उसे 75,940 रुपये का कैपिटल गेन हुआ। अधिकारी ने पाया कि निर्धारिती ने धारा 2(29ए) के प्रावधानों के तहत छूट का दावा किया था, जो लांग टर्म कैपिटल गेन से संबंधित है। अधिकारी के अनुसार उसे इन प्रावधानों का लाभ नहीं मिलना चाहिए था क्योंकि उसका मामला शॉर्ट टर्म कैपिटल गेन का है, जिस पर धारा 2(42ए) के प्रावधान लागू होते हैं।
इसके बाद निर्धारिती उसके इस आकलन आदेश के खिलाफ आयकर आयुक्त (अपील) के पास गया। उसने यह उल्लेख किया कि उसने 7 मार्च 1981 को इस योजना के तहत फ्लैट के लिए आवेदन किया और 27 फरवरी 1982 को उसे फ्लैट का आवंटन किया गया। आवंटन पत्र के अनुसार फ्लैट के कीमत की पहली किस्त 30 मार्च 1982 को अदा की जानी थी और सभी किस्तें 31 मार्च 1987 तक अदा कर दी जानी थीं। निर्धारिती ने उस फ्लैट का पजेशन लिया और उसके बाद 6 जनवरी 1989 को विशेष मुख्तारनामे के जरिये उसे बेच दिया। उसने तर्क दिया कि आवंटन की तिथि (27 फरवरी 1982) को ही उसे उस संपत्ति का मालिकाना हासिल हो गया था और सीबीडीटी के सर्कुलर-471 (15 अक्टूबर 1986) के प्रावधानों के तहत यह लांग टर्म कैपिटल गेन था और इस पर कर से छूट दी जानी चाहिए। उसने यह तर्क भी दिया कि आकलन अधिकारी ने गलत प्रावधानों का इस्तेमाल किया और द्वितीय आवंटन पत्र (15 मई 1986 को जारी) का संदर्भ लिया। लेकिन अंतत: निर्धारिती को आयकर आयुक्त (अपील) के समक्ष हार मिली। उसके बाद उसने आयकर अपीलीय अधिकरण (इनकम टैक्स एपीलेट ट्रिब्यूनल) के पास अपील की, लेकिन नतीजा वही रहा।
उसके बाद निर्धारिती ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में अपील की। मामले में बहस के दौरान निर्धारिती के वकील ने उच्च न्यायालय द्वारा सीआईटी बनाम वेद प्रकाश व पुत्रगण (हिअप) (1994) 207 आईटीआर 148 और सर्कुलर नंबर 471 (15 अक्टूबर 1986) (1986) 162 आईटीआर (स्टे.) 42 के मामले में दिये गये एक अन्य निर्णय का हवाला देते हुए तर्क दिया कि आवंटन पत्र जारी होने के साथ ही आवंटी को संपत्ति का अधिकार मिल जाता है और किस्तों की अदायगी उसके बाद की गतिविधि भर होती है। वकील ने तर्क दिया कि लांग टर्म कैपिटल गेन तय करते समय यह देखना चाहिए कि आवंटन के बाद से वह संपत्ति कितने समय उसके पास रही।
इस मामले का निर्णय करते समय न्यायाधीशों ने सीबीडीटी के सर्कुलर को महत्व दिया और फैसला दिया कि आवंटन पत्र जारी होते ही आवंटी को संपत्ति का मालिकाना मिल जाता है। किस्तों की अदायगी उसके बाद की गतिविधि मात्र होती है। इस मामले में आवंटन पत्र जारी कर निर्धारिती को 27 फरवरी 1982 को फ्लैट का आवंटन किया गया था और इस पत्र की शर्तों के अनुरूप निर्धारिती द्वारा किस्तों की अदायगी की जाती रही है, ऐसे में यह माना जायेगा कि संपत्ति पर उसका मालिकाना हक 15 मई 1986 (पजेशन दिये जाने की तारीख) से पहले से ही है। आगे न्यायाधीशों ने कहा कि 15 मई 1986 से पहले निर्धारिती का अधिकार उस संपत्ति पर था और ऐसे में यह नहीं माना जा सकता कि इस तिथि से पहले निर्धारिती के पास उस फ्लैट का मालिकाना नहीं था। इस तरह पजेशन की तारीख के बजाय आवंटन पत्र जारी करने की तारीख को ध्यान में रखते हुए यह माना गया कि यह कैपिटल गेन दरअसल लांग टर्म कैपिटल गेन है।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2013)