राजेश रपरिया, सलाहकार संपादक :
बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मुख्य उद्देश्य था कि बैंकों की सेवाओं और सुविधाओं का लाभ देश के गरीब किसान और आम आदमी को मिल सके।
बैंक ग्रामीण विकास की धुरी बनें और पूँजीपतियों के चंगुल से मुक्त हो सकें। मौजूदा सरकार उदार आर्थिक नीतियों की समर्थक है। गरीबों के कल्याण और वित्तीय समावेशन का लाख ढोल पीट लें, लेकिन उदार नीतियों के 20-22 सालों में बैंकों के राष्ट्रीयकरण का मकसद ही जमींदोज हो गया है। कारोबारी जगत, विशेष कर बड़े और मँझोले उद्यमों को दिये गये कर्जों में लाखों करोड़ रुपये की चपत के बाद भी बैंकों का हृदय इन्हीं पूँजीपतियों के लिए धड़कता है। भारतीय रिजर्व बैंक के कर संबंधी आँकड़ों से तो यही जाहिर होता है।
बैंकरों की सालाना बैठक में भारतीय रिजर्व बैंक के डिप्टी गवर्नर के सी चक्रवर्ती ने कर्ज के हालात पर जो प्रस्तुति रखी, उससे साफ दिखता है कि करोड़पतियों द्वारा लाखों करोड़ रुपये डकारने के बाद भी कॉर्पोरेट जगत और बैंकों के मुख से आह तक नहीं निकलती है। लेकिन गरीब किसानों की कर्ज माफी को लेकर कॉर्पोरेट जगत और बाजारवादी अर्थ विशेषज्ञ आसमान सिर पर उठा लेते हैं। श्री चक्रवर्ती ने बताया है कि पिछले 13 सालों में बैंकों ने एक लाख करोड़ रुपये से अधिक के कर्ज बट्टे खाते में डाले हैं। इनमें 95% कर्ज बड़े यानी करोड़ों रुपये के थे। लेकिन हर कोई किसानों की कर्ज माफी की चर्चा करता है।
बैंकों के कुल डूबे कर्ज (एनपीए) में 50% हिस्सा बड़े और मँझोले उद्यमों का है। रिजर्व बैंक के आँकड़े बताते हैं कि 2007-2013 के दौरान बैंकों के डूबे कर्जों में 4,94,836 करोड़ रुपये की वृद्धि हुई। इसी अवधि में बैंकों के डूबे कर्ज में 3,50,332 करोड़ रुपये घटाये भी गये। यह इसलिए संभव हो पाया कि 1,41,२९५ करोड़ रुपये के कर्ज बट्टे खाते में डाल दिये गये। वहीं 1,18,149 करोड़ रुपये बकायेदारों से वसूल लिये गये, जबकि 90,887 करोड़ रुपये के कर्जों को वसूली-योग्य खातों में बदल दिया गया। बैंक में कार्यरत कोई जिम्मेदार कर्मी बता सकता है कि इस कर्जों को तब्दील करना डूबे कर्जों की लीपापोती के अलावा कुछ नहीं है।
यदि इस परिदृश्य में कॉर्पोरेट ऋण पुनर्गठन (सीडीआर) सुविधा को जोड़ लिया जाये, तो स्थिति और भी डरावनी हो जाती है। इस सुविधा के तहत कर्जदारों को भुगतान करने के लिए रियायतें दी जाती हैं। ऋण भुगतान की अवधि बढ़ाना और ब्याज दर में रियायत देना इस सुविधा के अहम अंग हैं। पर कुल मिला कॉर्पोरेट ऋण पुनर्गठन सुविधा डूबे कर्ज को कम करने का जरिया बन कर रह गयी है, जिसमें कर्जदारों को बकायेदार या गबनकारी कहलाने से मोहलत मिल जाती है। श्री चक्रवर्ती ने इस सुविधा पर बुनियादी सवाल उठाये हैं। साल 2008-09 के अंत तक 184 मामलों में 86,536 करोड़ रुपये के कर्जों को सीडीआर में डाला गया। यह राशि जून 2013 में बढ़ कर 2,50,279 करोड़ रुपये हो गयी और कर्जदारों की संख्या 415, यानी महज चार वर्षों में 250% की बढ़ोतरी।
गौरतलब है कि कर्ज देने की वृद्धि दर से ज्यादा डूबे खातों की संख्या बढ़ रही है। जो निस्संदेह भारतीय बैंकिग जगत के लिए खतरे की घंटी है। कॉर्पोरेट ऋण पुनर्गठन की सुविधा इसलिए शुरू की गयी थी कि कई बार स्थितियाँ कर्जदार के नियंत्रण के बाहर हो जाती हैं, जैसे अर्थव्यवस्था में व्याप्त मंदी या किसी उद्योग विशेष में मंदी। इसके अलावा कानूनी या अन्य मुद्दों के कारण भी परियोजना के क्रियान्वयन में विलंब हो जाता है। इससे कर्ज भुगतान करने की शक्ति और पूरा आकलन गड़बड़ा जाता है। लेकिन कॉर्पोरेट ऋण पुनर्गठन में असाधारण वृद्धि से किसी की भी भौंहें चढऩा स्वाभाविक है। हकीकत यह है कि करोड़पति कर्जदार और बैंक इस सुविधा का दुरुपयोग कर रहे हैं।
हाल में भारतीय स्टेट बैंक (एसबीआई) के डिप्टी मैनेजिंग डायरेक्टर श्यामल आचार्य की गिरफ्तारी से बैंकों के बढ़ते डूबे कर्जों की हकीकत सामने आ जाती है। सीबीआई ने श्री आचार्य के लॉकरों में से 10 किलो सोना जब्त किया है। जब घूस लेकर कर्ज देना है तो परियोजना या कारोबार का सही मूल्यांकन कैसे हो सकता है? हर बैंककर्मी जानता है कि आचार्य की गिरफ्तारी बैंकों में बढ़ती घूसखोरी का संकेत भर है। कारोबारी कर्जों में डूबे खातों की संख्या तेजी से बढ़ रही है, जबकि इस जगत को हर साल पाँच लाख करोड़ रुपये की कर राहत केंद्रीय बजट में दी जाती है। हर साल 5-7 लाख करोड़ रुपये डकारने के बाद भी यह धनाढ्य वर्ग खाद्य सुरक्षा कानून या किसान कर्ज माफी पर आसमान सिर पर उठा लेता है। इस बात से ही मौजूदा राजनीतिज्ञों, प्रशासनिक अधिकारियों और करोड़पतियों की नापाक साँठ-गाँठ उजागर हो जाती है।
(निवेश मंथन, दिसंबर 2013)