राजीव रंजन झा :
बाजार साल 2013 में अब तक के सारे उतार-चढ़ाव के बाद फिर से जनवरी के आसपास के ही स्तरों पर है,
यानी इस साल अब तक की स्थिति लगभग सपाट है। जरा इस समय लंबी अवधि के परिदृश्य में बाजार की स्थिति को समझें। पिछले छह सालों में भारतीय बाजार की बढ़त शून्य है। इन छह सालों में बाजार ने नीचे जाने और वापस सँभलने की हर तरह की उठापटक देखी है, लेकिन नतीजा सिफर। जनवरी 2008 में सेंसेक्स और निफ्टी ने जो शिखर बनाये थे, उनके पास कई बार इन छह सालों में जाने के बाद भी बाजार उन्हें पार करने की हिम्मत नहीं जुटा पाया।
मगर मोतीलाल ओसवाल सिक्योरिटीज की ताजा रिपोर्ट इंडिया स्ट्रेटेजी - अक्टूबर 2013 में जिक्र है कि इन छह सालों से सपाट रहने के बाद भी साल 2003-2013 के बीते 10 सालों में बाजार की औसत सालाना वृद्धि दर (सीएजीआर) 13% रही है। लेकिन बीती चार तिमाहियाँ लगभग सपाट रहने के चलते औसत दर घटी है।
अगर 2002-2012 के 10 सालों को लें, तो इस दौरान औसत वृद्धि दर 19% बैठती है। मूल्यांकन के लिहाज से देखें तो इस रिपोर्ट में कहा गया है कि सेंसेक्स 19,400 के स्तर पर लंबी अवधि के औसत पीई यानी प्राइस अर्निंग अनुपात (12 महीने आगे के अनुमान) की तुलना में 8% छूट पर चल रहा है। अगर पीबी यानी प्राइस बुक वैल्यू अनुपात लें तो सेंसेक्स का मूल्यांकन लंबी अवधि के औसत से 17% कम है।
अगर हम बाजार पूँजी (मार्केट कैपिटलाइजेशन) बनाम जीडीपी का अनुपात देखें तो यह इस समय महज 56% पर आ चुका है। यह औसत से काफी नीचे है और बीते दशक के सबसे निचले स्तर के करीब है।
बीते 10 सालों में 12 महीने आगे के अनुमानों के आधार पर सेंसेक्स का औसत पीई 15.3 पर है। लेकिन अगर सेंसेक्स पीई का ग्राफ देखें तो स्पष्ट है कि पिछले करीब दो सालों से सेंसेक्स इस औसत पीई से नीचे ही चलता रहा है। इस समय सेंसेक्स का पीई 14 पर है। साल 2008 में बुरी तरह टूटने के दौरान जो तलहटी बनी थी, उस समय सेंसेक्स 10.7 पीई पर आ गया था। लेकिन उसके बाद और पहले की तस्वीर को देखें तो कहा जा सकता है कि भारतीय बाजार अपने मूल्यांकन के बड़े दायरे के निचले छोर पर ही चल रहा है।
अगर प्राइस बुक वैल्यू (पीबी) अनुपात देखें तो उस पैमाने पर भी तस्वीर वैसी ही है। पिछले दो सालों से यह अपने 10 सालों के औसत पीबी (2.7) को पार नहीं कर पाया है और अभी 2.2 पर है। इसका पीबी अनुपात साल 2008 में 1.6 तक फिसल गया था। लेकिन अगर उस अवधि को छोड़ दें तो बीते 10 सालों में सेंसेक्स पीबी नीचे की ओर 2.1-2.2 के आसपास ही रुकता रहा है।
मूल्यांकन को समझने का एक अहम पैमाना है कुल बाजार पूँजी और जीडीपी का अनुपात। कारोबारी साल 2007-08 में यह अनुपात 103% पर पहुँच गया था, यानी कुल बाजार पूँजी देश की जीडीपी के लगभग बराबर हो गयी थी। पिछले 10 सालों का औसत अनुपात 69% पर है और बीते तीन सालों से बाजार इस औसत के नीचे ही है। इस कारोबारी साल में यह 56% पर दिख रहा है। यानी इस समय कहा जा सकता है कि बाजार पूँजी देश की जीडीपी की लगभग आधी हो चुकी है। भले ही इस समय सेंसेक्स 20,000 के आसपास हो, जो जनवरी 2008 के शिखर से बहुत पीछे नहीं है, लेकिन बाजार पूँजी बनाम जीडीपी के पैमाने पर स्पष्ट है कि बाजार का मूल्यांकन जनवरी 2008 की तुलना में लगभग आधा हो चुका है।
बाजार की यह हालत तब है, जब विदेशी संस्थागत निवेशकों (एफआईआई) का रुझान मोटे तौर पर खरीदारी की ओर ही है। कैलेंडर वर्ष 2008 में अपनी 12.2 अरब डॉलर की शुद्ध बिकवाली के बाद से एफआईआई ने किसी साल बड़ी बिकवाली नहीं की है। उनकी ओर से साल 2009 में 17.6 अरब डॉलर और साल 2010 में 29.3 अरब डॉलर की शुद्ध खरीदारी की गयी। अगले साल उन्होंने केवल आधा अरब डॉलर की बेहद हल्की बिकवाली की, लेकिन इसके बाद फिर से 2012 में 24.5 अरब डॉलर की अच्छी खरीदारी की। इस साल, 2013 में सितंबर के अंत तक उनकी ओर से 13.4 अरब डॉलर की शुद्ध खरीदारी ही हुई है।
जरा सोचें कि अगर एफआईआई ने भी इन सालों के दौरान अपने हाथ भारतीय बाजार से खींच लिये होते तो सेंसेक्स-निफ्टी का क्या हाल रहा होता। लेकिन साथ में यह भी सोचें कि बीते छह सालों से भारतीय बाजार का प्रदर्शन इतना फीका रहने के बावजूद लगभग हर साल उनकी ओर से अरबों डॉलर की विशाल राशि का निवेश क्यों हो रहा है! ऐसा क्या है जिसे ये विदेशी निवेशक तो देख पा रहे हैं, लेकिन भारतीय निवेशक नहीं देख रहे?
अगर घरेलू वित्तीय संस्थाओं (डीआईआई) के आँकड़े देखें तो हाल के चार में से तीन साल उन्होंने बिकवाली ही की है। साल 2008 की जबरदस्त गिरावट के दौरान तो 16.9 अरब डॉलर की शुद्ध खरीदारी करके टूटते बाजार को सहारा देने का प्रयास किया था, जो कुछ हद तक अगले साल यानी 2009 में भी जारी रहा। लेकिन 2010 में जब बाजार फिर से मजबूती दिखाने का प्रयास कर रहा था तो वे बिकवाल बन गये। साल 2011 में उन्होंने 5.9 अरब डॉलर की शुद्ध खरीदारी जरूर की, लेकिन 2012 में उनकी 10.9 अरब डॉलर की बिकवाली हुई। इस साल सितंबर के अंत तक उनकी ओर से 8.3 अरब डॉलर की शुद्ध बिकवाली हो चुकी है।
ईपीएस अनुमानों में कमी
लेकिन शेयर बाजार में अक्सर कहा जाता है कि शेयरों के भाव उनकी आय (ईपीएस) के गुलाम होते हैं। इसका मतलब यह है कि अगर किसी शेयर की ईपीएस बढ़ रही है तो देर-सबेर उसके भाव भी बढ़ेंगे ही। इसका उल्टा भी उतना ही सच होता है। पिछले कुछ समय से तमाम देशी-विदेशी ब्रोकिंग फर्मों की ओर से सेंसेक्स ईपीएस के अनुमानों में कटौती का दौर चल रहा है। बीओए एमएल ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि साल 2013-14 में सेंसेक्स ईपीएस का उसका मौजूदा अनुमान 1,320 रुपये का है, लेकिन इसे घटा कर 1,260 रुपये किया जा सकता है।
यहाँ गौरतलब कि 2013-14 के अनुमानों में कटौती का सिलसिला साल 2012-13 की शुरुआत से ही चल रहा है। मार्च 2012 में बीओए एमएल ने 2013-14 का अनुमानित सेंसेक्स ईपीएस 1495 रुपये बताया था। तब से इस अनुमान में लगातार कमी आती गयी है। इसका मतलब यह है कि डेढ़ साल पहले 2013-14 का साल जैसा रहने के अनुमान थे, हकीकत उससे काफी अलग और कमजोर दिख रही है। एमओएसएल ने भी बीते तीन महीनों में 2013-14 का सेंसेक्स ईपीएस का अनुमान 1,327 रुपये से घटा कर 1,289 रुपये कर दिया है। मार्च 2012 में इसने 2013-14 के लिए 1,431 रुपये का अनुमान जताया था।
अभी ब्रोकिंग फर्मों ने इसके अगले कारोबारी साल, यानी 2014-15 के सेंसेक्स ईपीएस अनुमानों में कोई खास कटौती नहीं की है। बीओए एमएल ने जनवरी 2013 में 2014-15 का अनुमानित ईपीएस 1,635 रुपये बताया था, जिसे मई 2013 तक घटा कर 1,535 रुपये कर दिया गया। लेकिन उसके बाद यह अनुमान थोड़ा बढ़ाया ही गया है और इसका ताजा अनुमान 1,555 रुपये का है। अगर यह मान लें कि बीओए एमएल का 2013-14 का अनुमान घट कर 1,260 रुपये होने वाला है, तो 2014-15 की 1,555 रुपये की ईपीएस पर 23.4% की सालाना बढ़त मिलती है। जब 2014-15 के लिए देश की आर्थिक विकास दर (जीडीपी) केवल 5-6% बढऩे के अनुमान सामने आ रहे हों, तो वैसी हालत में सेंसेक्स ईपीएस इस तेजी से बढ़ पाना किसी चमत्कार से ही संभव हो सकता है, अन्यथा नहीं।
मतलब यह है कि ब्रोकिंग फर्मों ने 2013-14 के अनुमानों में जैसे एक समय के बाद लगातार कटौती करनी शुरू की, उसी तरह का सिलसिला 2014-15 के अनुमानों को लेकर भी शुरू हो सकता है। एमओएसएल ने बीते तीन महीनों में 2014-15 का अनुमानित ईपीएस 1,536 रुपये से घटा कर 1,476 रुपये कर दिया है।
लेकिन इस कटौती के बाद भी अगर इसके 2013-14 के अनुमानित ईपीएस 1,289 से तुलना करें तो 2014-15 में सेंसेक्स ईपीएस में 14.5% की वृद्धि दिखती है। इसी तरह एंजेल ब्रोकिंग ने भी 2013-14 से 2014-15 में सेंसेक्स ईपीएस 15.4% बढऩे का अनुमान अपनी ताजा रिपोर्ट में सामने रखा है। आने वाले समय में या तो ब्रोकिंग फर्मों के 2014-15 के अनुमान नीचे आयेंगे, या फिर भारत की विकास दर के अनुमान सुधरेंगे। ये दोनों चीजें अभी जिन स्तरों पर हैं, उनमें तालमेल नहीं है।
ऊपर टिक पाना मुश्किल
इन सारी बातों से जहाँ एक तरफ हमें यह दिखता है मूल्यांकन काफी नीचे आ गये हैं, वहीं यह भी दिखता है कि आने वाले समय में आय के अनुमानों में कटौती का भी काफी जोखिम है। यानी जहाँ एक बात बाजार को गिरने से बचा सकती है, वहीं दूसरी बात बाजार को चढऩे से रोकेगी। लेकिन स्वभाव से चंचल होने के चलते भारतीय शेयर बाजार उछल-कूद मचाता रह सकता है, भले ही वह उछल-कूद एक बड़े दायरे के अंदर हो।
अगर हम यह मान लें कि 2013-14 में सेंसेक्स की वास्तविक ईपीएस अंतत: लगभग 1300 रुपये रहती है, जो 2012-13 की 1,192 रुपये की ईपीएस से लगभग 9% ज्यादा होगी, तो अगले कारोबारी साल में लगभग 10% की वृद्धि मान कर चलने पर 2014-15 की ईपीएस 1,430 रुपये हो सकती है। अगर मान लें कि छह महीने बाद भी भारतीय बाजार 12 महीने आगे की अनुमानित ईपीएस पर 14 पीई अनुपात के मूल्यांकन पर ही रहा, तो भी हमें सेंसेक्स के लिए करीब 20,000 का ही स्तर मिलता है।
इसलिए अचानक किसी खबर से पैदा उत्साह में अगर सेंसेक्स 20,000 के ज्यादा ऊपर चला भी जाये तो ऊपरी स्तरों पर इसका टिक पाना मुश्किल होगा। यही बात हमें इस साल भी अब तक दिखती रही है। टिकाऊ ढंग से ऊपर जाने के लिए या तो ईपीएस में वृद्धि जरूरी है, या फिर बाजार को ज्यादा मूल्यांकन मिलना जरूरी है। ज्यादा मूल्यांकन तब मिलता है, जब किसी बाजार में पैसा लगाने के लिए निवेशकों के मन में अच्छा उत्साह जगे। वह उत्साह इस समय गायब है और एफआईआई के सिवाय किसी और खेमे से खरीदारी होती नहीं दिख रही है।
एफआईआई की खरीदारी भी काफी हद तक वैश्विक बाजार में नकदी की उपलब्धता (लिक्विडिटी) पर निर्भर रहेगी। यह नकदी निर्भर है अमेरिकी फेडरल रिजर्व के इस फैसले पर कि वह मौद्रिक ढील (क्वांटिटेटिव ईजिंग) के तीसरे दौर यानी क्यूई-3 को कब से वापस लेना शुरू करता है। अपनी सितंबर की बैठक में फेडरल रिजर्व ने जरूर यह फैसला टाल दिया, लेकिन इस बैठक के जो विवरण (मिनट्स) सामने आये हैं, उनसे स्पष्ट है कि यह साल पूरा होने से पहले ही इस प्रक्रिया को शुरू किया जा सकता है।
राजनीतिक अनिश्चितता
इन सबके बीच राजनीतिक अनिश्चितता की तलवार लगातार लटकी हुई है। बेशक, अब यह स्पष्ट होता जा रहा है कि कांग्रेस इस सरकार का कार्यकाल पूरा करने की इच्छुक है और समय से पहले चुनाव नहीं करायेगी। यह बात उद्योग जगत और शेयर बाजार के लिए अच्छी नहीं लगती। उद्योग जगत का रुख फिलहाल यही लगता है कि अगली सरकार की रूपरेखा साफ हो जाने के बाद ही वे भविष्य के लिए अपनी निवेश योजनाओं पर कोई फैसला करेंगे। इसीलिए उद्योग जगत के कई बड़े दिग्गज हाल के महीनों में यह कहते सुने गये कि चुनाव जल्दी हो जाना ही अच्छा है। चुनाव अपने सामान्य समय पर होने का मतलब यह है कि अनिश्चितता के बादल कुछ और महीनों तक छाये रहेंगे।
लेकिन इस बीच नवंबर-दिसंबर में होने वाले विधानसभा चुनावों को लोग लोकसभा चुनाव के सेमीफाइनल की तरह देखेंगे। अगर आम धारणा के मुताबिक भाजपा को मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में जीत मिलती है तो बाजार इसे लोकसभा चुनाव में भाजपा की अच्छी संभावना के तौर पर देखेगा। यह बात तात्कालिक रूप से बाजार में एक सकारात्मक रुझान भी पैदा कर सकती है। लेकिन इसके चलते कोई बड़ी और टिकाऊ उछाल मिल जाये, यह उम्मीद करना भी ठीक नहीं होगा। ये तीनों ही राज्य भाजपा के लिए परंपरागत रूप से मजबूत राज्य हैं। इनमें जीत मिल जाने का यह सीधा मतलब नहीं निकाला जा सकता कि लोकसभा चुनाव में भाजपा सरकार बनाने की स्थिति में पहुँच रही है। लेकिन उसके बाद चुनावी सर्वेक्षणों की भी कतार लगेगी और उनके परिणामों को देख कर शेयर बाजार में लोग चुनाव से पहले ही कयास लगाने का प्रयास करेंगे।
आगामी लोकसभा चुनाव को लेकर दो तरह के जोखिम बन सकते हैं। पहला जोखिम यह है कि लोकसभा चुनाव से पहले ही राजनीतिक अस्थिरता की आशंका में बाजार गिरने लगे। हालाँकि विधानसभा चुनावों में भाजपा की स्थिति मजबूत रहने पर यह जोखिम कम हो जायेगा।
दूसरा जोखिम यह है कि कांग्रेस या भाजपा दोनों ही एक टिकाऊ सरकार बनाने लायक सीटें न पा सकें। अगर चुनावों के बाद तीसरे मोर्चे की सरकार बनने की नौबत आयी तो उस स्थिति में बाजार की शुरुआती प्रतिक्रिया काफी नकारात्मक हो सकती है। अगर कांग्रेस या भाजपा की सरकार बन भी जाये, लेकिन वह काफी कमजोर लगे, तो इससे बाजार को शायद कोई उत्साह न मिले। अगर कहीं चुनाव से पहले तो बाजार ने मजबूती का रुझान बनाये रखा और चुनाव के बाद अस्थिरता की हालत पैदा हो गयी, तो यह सबसे बुरी स्थिति होगी, क्योंकि तब ज्यादा ऊँचाई से गिरने वाली चोट ज्यादा मारक होगी।
निवेश रणनीति
अब इस माहौल में एक निवेशक को करना क्या चाहिए? अगर मूल्यांकन पर गौर करें तो यह कहा जा सकता है कि लंबी अवधि के निवेशकों के लिए इस समय बाजार में जोखिम कम है। ध्यान रखें कि यह बात लंबी अवधि के निवेशकों के लिए है, यानी जो कम-से-कम 3-5 साल तक अपना निवेश बनाये रखने का इरादा रखते हैं।
भारतीय अर्थव्यवस्था की परेशानियों के साथ-साथ अभी जो वैश्विक चिंताएँ भी दिख रही हैं, उनमें से काफी स्थितियाँ अगले 3-5 सालों में बहुत बदल जायेंगीं। इन दिनों अक्सर यह पूछा जा रहा है कि क्या भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी तलहटी से सँभलने लगी है? तलहटी से सँभलने लगी है या नहीं यह कहना आज भले ही मुश्किल हो, लेकिन इतना जरूर कहा जा सकता है कि यह अपनी तलहटी पर ही है। वापस सँभलने की स्थिति अगले छह महीनों में बनेगी या कुछ ज्यादा समय में, यह भी दावे से कहना मुश्किल है। लेकिन यह उम्मीद तो जरूर ही की जा सकती है कि आज से तीन साल बाद भारतीय अर्थव्यवस्था काफी बेहतर स्थिति में होगी।
इसलिए यह भी मानना चाहिए कि अगले 3-5 सालों के निवेश के लिए यह बेहद अनुकूल समय है, क्योंकि निराशा के माहौल में मूल्यांकन काफी ठंडे हैं। यह आशंका जरूर है कि लोकसभा चुनाव से पहले या चुनाव के ठीक बाद बाजार में काफी उठापटक हो सकती है।
इसके मद्देनजर सेंसेक्स जब 20,000 के आसपास चल रहा हो, उस समय खरीदारी से बचना ही बेहतर है। लेकिन बाजार में जब भी निचले स्तर मिलें तो अच्छे शेयरों को चुन-चुन कर जमा करना चाहिए।
इस बात को जरूर याद रखें कि शेयर बाजार में जब भी आपको काफी आकर्षक स्तर मिल रहे होते हैं, उस समय बाजार में काफी डर का भी माहौल होता है। वह माहौल आपको सही समय पर निवेश नहीं करने देता। लेकिन यदि आप अपने डर से उबर कर सही समय पर सही फैसला कर सके तो तमसो मा ज्योतिर्गमय का मंत्र आपके लिए फलदायी हो जायेगा।
जो निवेशक अपनी मासिक बचत का एक हिस्सा शेयर बाजार में लगाना चाहते हैं, उनके लिए अपनी व्यक्तिगत सुनियोजित निवेश योजना (एसआईपी या सिस्टेमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान) बना लेने का भी यह अच्छा समय है। आप तय कर लें कि हर महीने आप अपनी शुद्ध बचत के कितने हिस्से का निवेश शेयर बाजार में करना चाहते हैं। इसके बाद आप हर महीने की एक खास तय तारीख को उस पूर्व-निर्धारित रकम से अपने चुने हुए शेयर खरीदें।
ऐतिहासिक शिखर के सामने
अगर बाजार की मौजूदा हालत देखें तो इसके लिए ऊपरी स्तरों पर टिक पाने को लेकर चिंता बरकरार है। अक्टूबर 2013 के दूसरे हफ्ते में सेंसेक्स लगातार तीन दिन 20,000 के ऊपर बंद होने में जरूर सफल हुआ है और 11 अक्टूबर 2013 को इसका बंद स्तर 20,529 का रहा। लेकिन गौरतलब है कि सेंसेक्स जनवरी 2008 के बाद से ही अब तक 20,000 के ऊपर टिक नहीं पाया है।
इस साल बार-बार सेंसेक्स का 20,000 के ऊपर टिकना मुश्किल रहा। हाल में यह 19 सितंबर को 20,740 तक चढ़ा। इससे पहले 23 जुलाई को 20,351 पर, 20 मई को 20,444 पर और 29 जनवरी को 20,204 पर इसके शिखर बने, लेकिन इसके तुरंत बाद यह 20,000 के नीचे लौट आया।
केवल इसी साल नहीं, पिछले छह सालों से यही कहानी है। तीन जनवरी 2011 को 20,665 का शिखर बना। पाँच नवंबर 2010 को 21,109 का शिखर बना था। और, 10 जनवरी 2008 को बना 21,207 का ऐतिहासिक शिखर तो सबको याद ही होगा। अगर सेंसेक्स 20,000 के ऊपर टिक सका तो ऐतिहासिक शिखर छूने में कितना समय लगेगा? इसके 11 अक्टूबर के बंद स्तर 20,५२९ से तो 21,207 का ऐतिहासिक शिखर केवल 678 अंक यानी 3.3% दूर है!
क्या बाजार केवल सवा तीन फीसदी और चढ़ पाने की हालत में है? या दूसरे ढंग से पूछें तो क्या बाजार इस समय नया ऐतिहासिक शिखर बनाने के लिए तैयार है? अक्टूबर के शुरुआती दिनों में मजबूती के बावजूद बाजार में ऐसे उत्साह और विश्वास की कमी साफ दिखती है।
इसलिए ऐसा लगता है कि बाजार के लिए यह ऐतिहासिक शिखर फिर से बाधा का काम कर सकता है। निफ्टी को देखें तो इसके 2008 के शिखर 6357 और 2010 के शिखर 6339 को मिलाती रुझान रेखा 6300 के थोड़ा ऊपर बाधा बन कर मौजूद है।
बेशक यह मई 2013 के शिखर 6229 से अगस्त 2013 की तलहटी 5119 तक की गिरावट की 80% वापसी के स्तर 6007 को पार कर चुका है। ऐसे में अब ऊपर केवल सितंबर 2013 का शिखर 6142 ही बाधा है, जिसके पार होने पर 6229 तक जाने की गुंजाइश खुल जायेगी। लेकिन इसका मतलब यह भी है कि पहले 6142 पर, फिर 6229 पर, फिर 6300-6350 के दायरे में बाधा मिल सकती है।
अगर निफ्टी 6350 के ऊपर निकल सके तो काफी बड़ी तेजी का रास्ता खुल सकेगा। निफ्टी जब भी 6350 को पार करेगा, तो यह कई सालों तक चलने वाली तेजी के दौर में प्रवेश कर सकता है। लेकिन क्या बाजार वैसी बड़ी तेजी के लिए अभी तैयार है? हालात ऐसे नहीं लगते। इसलिए अगर निफ्टी इन बाधाओं पर अटका और 6000-5950 से नीचे फिसल गया तो यह तेजी की चाल टूटने का संकेत होगा। वैसी हालत में 5400-5500 तक गिरने की संभावना बन सकती है। अगर सेंसेक्स सितंबर 2013 के शिखर 20,740 को पार नहीं कर सका तो अगस्त की तलहटी 17,449 से 20,740 तक की उछाल की 23.6% वापसी 19,963 और फिर 38.2% वापसी 19,483 तक गिरने की संभावना बन जायेगी।
इन चिंताओं के बावजूद सेंसेक्स और निफ्टी के चार्ट पर जो अच्छे संकेत बन रहे हैं, उन्हें नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। सेंसेक्स का 200 दिनों का सिंपल मूविंग एवरेज (एसएमए) 19,420 पर है और 50 एसएमए 19,287 पर। जब तक यह इन दोनों के ऊपर है, तब तक ज्यादा बड़ी चिंता की जरूरत नहीं, लेकिन इनके नीचे जाना खतरनाक होगा। ध्यान दें कि अक्टूबर २०१३ की शुरुआत में इसने ठीक 50 एसएमए पर सहारा लिया है। निफ्टी भी 200 एसएमए और 50 एसएमए के दोनों के ऊपर है। हालाँकि अभी इनका गोल्डेन क्रॉस नहीं बना है, क्योंकि 50 एसएमए (5704) ने 200 एसएमए (5842) को नीचे से ऊपर जाते हुए काटा नहीं है। अभी 50 एसएमए नीचे है।
इन संकेतों को देखते हुए कहा जा सकता है कि बाजार ने भले ही वापस पलटने के संकेत नहीं दिये हों, मगर ऊपरी स्तरों पर बेहद सावधान रहने की जरूरत है। बाजार जिन ऐतिहासिक बाधाओं के सामने है, उन्हें अगर यह पार कर सका तो कहानी एकदम ही बदल जायेगी। इसका मतलब यह होगा कि बाजार कुछ ऐसा भाँप चुका है, जो हम-आप अभी नहीं देख पा रहे हैं।
आगे हम आपके लिए दीपावली की शुभकामनाओं के साथ 10 शीर्ष चुनिंदा शेयरों को पेश कर रहे हैं, जिन्हें आप न केवल अगले एक साल, बल्कि कई सालों के निवेश के लिए चुन सकते हैं।
(निवेश मंथन, अक्तूबर 2013)