शुरुआत में मकान की कीमत का केवल 20-25% का भुगतान और दो-तीन साल तक ईएमआई देने का कोई झंझट नहीं।
बिल्डरों या भवन-निर्माताओं की सबवेंशन योजनाओं का यह सबसे लुभावना वाक्य है। काफी निर्माताओं ने अब मकान के कब्जे या पजेशन से जुड़ी भुगतान योजनाएँ भी शुरू की हैं। कई निर्माता तो वापस खरीद या बायबैक की योजना भी पेश कर रहे हैं और कह रहे हैं कि आप 18 महीने बाद चाहें तो 20-30% फायदे पर मकान हमें ही वापस बेच सकते हैं।
एक खरीदार के नजरिये से देखें तो उसे यह लगता है कि बेहद कम शुरुआती भुगतान करके वह संपत्ति खरीद सकता है और बाकी भुगतान उसे कई साल बाद करना होगा। इससे खरीदार को मदद मिलती है। आम तौर पर खरीदार किसी किराये के मकान में रह रहा होता है। साथ में अगर वह बनता हुआ मकान खरीदता है तो उसकी ईएमआई भी जाने लगती है। इस तरह किराया और ईएमआई, दोनों का भुगतान करना उसे भारी लगता है।
इस बात से राहत देने के लिए कुछ निर्माताओं ने ऐसी योजनाएँ पेश कीं, जिनमें खरीदार को शुरुआती 2-3 सालों तक ईएमआई नहीं चुकाना पड़ता। इन्हें सबवेंशन योजना कहते हैं, जिसके दो-तीन प्रचलित रूप हैं। ऐसी योजना में खरीदार और निर्माता के साथ-साथ बैंक भी जुड़ा होता है। सलाहकार फर्म क्यूबरेक्स के एमडी संजय शर्मा बताते हैं कि पहले अगर निर्माता किसी परियोजना में छूट देना चाहता था, लेकिन इसे छूट कहना नहीं चाहता था तो वह सबवेंशन योजना रख देता था। मान लीजिए कि कोई निर्माता सबवेंशन योजना के लिए किसी बैंक के पास गया। परियोजना की कीमत 6000 रुपये प्रति वर्ग फुट की है और बैंक ने दो साल की अवधि के लिए सबवेंशन योजना का खर्च 500 रुपये प्रति वर्ग फुट बताया। अब निर्माता खरीदार को 6000 रुपये के भाव पर बेचेगा, जिसके लिए बैंक कर्ज जारी करेगा। लेकिन बैंक निर्माता को 500 रुपये काट कर भुगतान करेगा। इस तरह दो साल तक ईएमआई की जो राशि है, वह बैंक ने पहले ही काट ली।
अब कहानी कुछ बदल गयी है। शर्मा कहते हैं कि मान लीजिए किसी निर्माता ने 6000 रुपये प्रति वर्ग फुट पर एक परियोजना बाजार में पेश की। लेकिन वह सबवेंशन योजना में कीमत बढ़ा कर 6500 वर्ग फुट कर देता है। खरीदार देखता है कि भले ही दाम कुछ बढ़े हुए हैं, लेकिन मेरी जेब से अभी केवल 20% पैसे जा रहे हैं। खरीदार यह उम्मीद करता है कि साल दो साल में कीमत और बढ़ जायेगी। तब तक मकान मिलने का समय करीब आ जायेगा। वह सोच कर चलता है कि मकान मिलने से पहले ही या मकान लेने के तुरंत बाद बेच देगा। ऐसे में जहाँ उसकी जेब से केवल 20% पैसे लगे, वहीं कीमत में वृद्धि का उसे पूरा फायदा मिल जायेगा।
लेकिन इस परियोजना का असली पेंच यही है कि निर्माता ने खरीदार से जो 500 रुपये अतिरिक्त लिये हैं, उनसे वह खरीदार के बदले बैंक की किस्त जमा कर रहा है। बैंक को तो पैसे चाहिए, चाहे वह खरीदार भरे या निर्माता खुद। एक तय अवधि तक खरीदार के बदले निर्माता ने ही ईएमआई भर दी। बल्कि होता यह है कि बैंक निर्माता को भुगतान ही कम करता है। वह निर्माता को 6500 रुपये के भाव पर नहीं, बल्कि 6000 रुपये के भाव पर ही पैसे देता है। लेकिन बैंक जो कर्ज दे रहा है, उसकी पूरी जिम्मेदारी खरीदार पर ही होती है, क्योंकि बैंक ने वास्तव में कर्ज उसी को दिया है। अगर कुछ समय बाद निर्माता ईएमआई का भुगतान बंद कर दे, किसी वजह से हाथ खड़े कर दे, तो खरीदार के ऊपर ही ईएमआई चुकाने की जिम्मेदारी आ जायेगी। जानकार बताते हैं कि कुछ मामलों में ऐसा हो भी चुका है।
ऐसी योजना में निर्माता को पता होता है कि उसे 24 महीनों की ईएमआई के कितने पैसे बैंक को खुद देने हैं। किसी भी गृह-कर्ज (होमलोन) में अब खरीदार को अपनी ओर से कम-से-कम 20% तक का भुगतान तो करना ही होता है, चाहे सबवेंशन योजना हो या नहीं। अब उसी 20% राशि को निर्माता आरंभिक भुगतान बताते हैं, सबवेंशन योजना चलते रहने तक ईएमआई की राशि खुद भरते हैं और वह राशि दरअसल वे कीमत बढ़ा कर खरीदार से ही वसूल कर लेते हैं।
तय अवधि वाली सबवेंशन योजनाओं में एक यह जोखिम भी होता है कि सबवेंशन अवधि के दौरान निर्माता उस परियोजना को पूरा ही न करे। अगर तीन साल तक ईएमआई न चुकाने की योजना हो और उन तीन सालों में निर्माता ने परियोजना पर कुछ खास काम ही नहीं किया, या आंतरिक साज-सज्जा निपटा कर मकान नहीं सौंपा तो आगे की ईएमआई चुकाने की जिम्मेदारी खरीदार पर आ जायेगी। शर्मा बताते हैं कि एम्मार एमजीएफ की पाम ड्राइव परियोजना के ग्राहकों के साथ ऐसा हो चुका है। यह योजना तीन साल में पूरी होनी थी, जबकि छह साल के बाद भी इसमें अभी केवल 70-75% काम ही पूरा हुआ है। अभी साल दो साल और लग सकते हैं।
जब लोगों को इस जोखिम का भान हो गया तो निर्माताओं ने इस योजना में कुछ फेरबदल किया है। अब निर्माताओं ने कुछ ज्यादा जोखिम ले कर पजेशन लिंक्ड पेमेंट प्लान शुरू कर दिया है, जिसमें खरीदार को मकान मिलने तक ईएमआई नहीं चुकानी पड़ती है। ऐसे में अगर निर्माता उस परियोजना को पूरा करने में ज्यादा समय लगाता है तो उसे ही नुकसान होगा।
कुछ निर्माताओं ने ऐसी योजनाएँ शुरू की हैं, जिनमें बैंक से कर्ज लेने की भी जरूरत नहीं है। वे कह रहे हैं कि अभी आप केवल 25% का भुगतान करें और बाकी पैसा मकान मिलने पर दें। शर्मा मानते हैं कि कागज पर तो यह योजना अच्छी है, लेकिन आगे ऐसी योजनाओं का प्रदर्शन कैसा रहता है इस पर निगाह रखनी होगी।
कई बार ऐसी योजनाएँ वास्तविक खरीदारों से कहीं ज्यादा वित्तीय निवेशकों को आकर्षित करने के लिए लायी जाती हैं। शर्मा कहते हैं, ‘ऐसी योजनाएँ बाजार में काफी लोकप्रिय हो रही हैं। लेकिन हकीकत यह है कि खुद अपनी जरूरत के लिए मकान लेने वाले खरीदार बाजार में काफी कम हो गये हैं। ऐसे खरीदार केवल कुछ हद तक सस्ते मकानों की श्रेणी में मौजूद हैं। अगर मकान बिकने में दिक्कत नहीं आ रही होती तो इतनी सबवेंशन योजनाएँ नहीं आ रही होतीं।’
शर्मा इनका अर्थशास्त्र समझाते हुए कहते हैं, ‘एक निवेशक को लगता है कि उसे काफी कम शुरुआती निवेश पर बाद में अच्छा फायदा मिल जायेगा। मान लें कि एक निवेशक ने एक करोड़ रुपये की संपत्ति खरीदी और उसके लिए शुरू के दो साल में केवल 20 लाख रुपये का भुगतान किया। इन दो सालों में संपत्ति की कीमत 30 लाख रुपये बढ़ गयी। अगर उसने पूरे एक करोड़ का भुगतान किया होता तो उसका लाभ केवल 30% होता। लेकिन अगर मैंने दिये हैं केवल 20 लाख रुपये और उस पर 30 लाख रुपये कमा लेता हूँ तो मेरा फायदा 150% हो जाता है।’
लेकिन निवेशकों को खुश रखने के लिए जरूरी है कि संपत्ति के दाम बढ़ते हुए नजर आयें। शर्मा मानते हैं कि यह एक बड़ा कारण है, जिसके चलते बाजार में बेहद कम माँग और अधिक आपूर्ति के बावजूद मकानों के दाम बढ़ते जा रहे हैं। हालाँकि कई निर्माता निवेशकों को दूर रखने के लिए खरीदारों पर यह प्रतिबंध भी लगा रहे हैं कि वे एक तय समय तक मकान किसी और को बेच नहीं सकेंगे।
दरअसल निवेशक निर्माताओं को अच्छे भी लगते हैं क्योंकि उनसे उन्हें शुरुआती पूँजी मिल जाती है, लेकिन निवेशकों से उन्हें नुकसान भी होता है। भविष्य में जब निर्माता अपनी परियोजना की कीमत बढ़ा कर बेचना चाहता है तो उसके पुराने निवेशक उससे कुछ कम कीमत पर ही बेचने के लिए बाजार में प्रतिद्वंद्वी बन कर खड़े हो जाते हैं।
शुरुआती भुगतान ज्यादा तो कीमत सस्ती
हमारी एक योजना सेल्फ फाइनेंस की है, जिसमें ग्राहक को शुरुआत में 50% पैसे देने हैं और बाकी 50% मकान मिलने के समय, लेकिन उस समय हम ग्राहक को 1000 रुपये प्रति वर्ग फुट कैश बैक देते हैं, यानी उतने पैसे वापस कर देते हैं। इस तरह शुद्ध लागत 4075 रुपये से घट कर 3075 रुपये प्रति वर्ग फुट हो जाती है, जो कैशडाउन योजना के 3450 रुपये से भी कम है। कैशडाउन योजना में हमारे सामने यह जोखिम रहता है कि ग्राहक को शुरुआती 15% भुगतान के बाद 45 दिनों में जो बाकी ८५% पैसा देना है, वह आयेगा या नहीं, क्योंकि हो सकता है उस बीच ग्राहक को बैंक से कर्ज ना मिले। दूसरी तरफ सेल्फ फाइनेंस में हमें छूट के बाद की कीमत का करीब 74% हिस्सा शुरुआती भुगतान के तौर पर ही मिल जाता है। इसलिए हम ऐसे ग्राहक को सबसे सस्ती कीमत देते हैं।
आपको सस्ती कीमत चाहिए या ज्यादा समय?
ऐसी योजनाओं से ग्राहक को यह सुविधा होती है कि शुरुआत में केवल 15-20% भुगतान करने के बाद उन्हें मकान मिलने तक या तीन साल तक और भुगतान नहीं करना होगा। एक निर्माता के लिए ऐसी योजना बाजार से बहुत कम लागत पर पैसा जुटाने की अच्छी तरकीब है। अगर निर्माता वही पैसा उधार ले तो उसे 16-18% या 24% तक ब्याज देना पड़ेगा। ग्राहक को यह ध्यान रखना चाहिए कि ऐसी योजना में आप ज्यादा कीमत चुका रहे हैं और आपको बढ़ी हुई दर पर यह सुविधा मिल रही है। अगर आप पूरा नकद (कैश डाउन) भुगतान करें तो आपको कीमत में 12% तक छूट मिल जायेगी। अगर आप कीमत में छूट के बदले भुगतान के लिए ज्यादा समय चाहते हैं तो यह योजना ठीक है। इसलिए यह ग्राहक की पसंद के ऊपर निर्भर करता है।
बाकी भुगतान की तैयारी भी रख कर चलें
हमने अपने ग्राहकों के लिए निर्माण से जुड़ी भुगतान योजनाएँ ही रखी हैं। लेकिन बाजार में कुछ योजनाएँ हैं, जिनमें शुरुआती छोटे भुगतान के बाद बाकी पैसा मकान मिलने पर देना है। शायद वे निर्माता ऐसी योजनाएँ ला रहे हैं, जिनकी परियोजना पूरी होने के करीब है और उनके पास अब भी बेचने के लिए घर बाकी बचे हैं। इससे जो परियोजना साल छह महीने में पूरी होने वाली है, उनमें मकान खरीदने के लिए खरीदार के लिए शुरुआती भुगतान का बोझ हल्का हो जाता है। इससे एंट्री बैरियर यानी खरीदते समय शुरुआती भुगतान की सीमा नीचे आ जाती है। खरीदार को ध्यान रखना चाहिए कि उन्हें बाकी 70-80% भुगतान भी शायद अगले साल छह महीने में ही देना होगा। उसकी तैयारी रख कर ही ऐसी योजना में मकान खरीदना चाहिए।
(निवेश मंथन, जून 2013)